नियमसार प्रवचन [भाग 6,7,8,9,11] | Niyamsaar Pravachan [Bhag 6,7,8,9,11]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाथा €६ ११ वाह्तवमें हो नहीं सकता है। इसी कारण आचार्यदेवने प्रव्यास्यानके प्रकरणम यह मृलभाषना कदी है । समस्त पुरुषार्थभसार इस भावनाके चाद होगा अथवां जितना भी पुरुषार्थप्रसार है, इस भाषनाका ही प्रसार है | ँ भावनाका श्रघिकार -- सैया ! जीबर भावनाके सिचाय ओर छं नदीं फरता है | सांसारिक कास भी जद्दा हो रहे हैं, वबद्दा पर भी यह जीवमान्र भावना बनाता है कि परवरतु्से परवस्तुका कठ त्व नहीं होता है । यह जीव न शरीर बना सकता है, न घर-दूकान बना सकता है, यह केवल अपनी भावना बनाता है, दासता बनाता है जो भावात्मक है। अब उसका ऐसा निमित्तनेमिक्तिक सम्बन्ध है कि घासना बत्तानेके साथ अपने आपमें योगपरिस्पद हुआ और खत्बली सची। अब उसका सम्बन्ध शरीरसे हैं, इस समय तो,शरी रके अंगोमें भी स्फुरणा हुई है, उसके बाद ये अगोपांग चले । इस सब्न॑ क्रियावोंके प्रसंगर्में भी इस जीवने केवल भावना बनायी, किया कुछ नहीं। भावनासे दी यह ससार चला | जिन भावनावोंसे यह ससार बनता है; चतुर्गतिश्रमण द्वोता है, विपत्तियां आती हैं; उनके विरुद्ध अथवा यों कह्दो कि सहज- स्वभावदे अनुरूप अपनी मावना बने तो यह विपत्ति दूर हो जाती है| इसी भावनाका यहां वर्णन किया है | ज्ञानी पुरुष ऐसा चितन फर रहा है कि में केबल शञ न। दशन। सुख) आनन्द्स्वरूप हूं; इस भावनाकों दृढ़ कर रहा है, जिसके फल्में निश्चयप्रत्याख्यान प्रकट होता है | वास्तविक झभिरामता-- ज्ञानी पुरुष वेवल ज्ञान, केवल दर्शन पेबल सुख और केवल शक्तिके स्तोत- भूत सहजज्ञान) सहजदशैन) सहजसुख और सहजशक्तिस्वरूपका चिंतन फर रहा है। पदार्थमे सुन्दरता पदार्थके एकल्वमें है। अन्य पदार्थोके सम्बन्धसे निसपाधि स्वतःसिद्ध जो निजस्वभाव है, उस स्वभावके उपधोगमें ही सुन्दरता है । श्र्‌ तपुर्व भौर श्र तपूव -- जगतके जीर्बोनि आज तक विसंम्बाद फरने बाली भोगोंकी कथाएँ तो सुनी हैं । ज्ञिन बचलोंसे विषयोंमें आसक्ति होवे, जिन वचनोंसे विषयभोगमें उंत्साह जगे--ऐसे बचनोके श्रवणसें तो इस जीबने चित्त दिया; परन्तु इस तत्त्वक्री कद्दानोमें जो स्वयं -सुखरूप हैं, उसमें चित्त न लगाया, यद्द तो रुचता ही नहीं है । केला व्यामोहजाल इस जगत्‌ पर पड़ा हुआ हैं ? अभी कोई खेल तमाशा ही होने लगे, राय-रागिनी राग भरी द्वोने लगे तो सुननेकी उत्सुकता अनेकोंको जग जाएगी; कितु अपने आपके अत'स्वरूपकी, अन्तःप्रभुकी कहानी जिसके प्रसादसे संसारके समस्त संकट मिटते है, उसके सुननेकी रुचि नदीं जगती दै । इस जीवने विपर्योकी कहानी तो बार-बार सुनी, परन्तु पे वल क्वान, वे वल्ल दर्शन, केवल सुखस्वभावरूप जो अपना अद्भुत परमत्तेज है, उसकी चर्चा नीं सुनी । जगते सव जगह 'की बातें सुनते जावो, पर सुननेसे तृप्ति नहीं होती है, सुननेका काम पूरा नहीं होता है । कितसी ही गप्पें कीजिए, पर गण्पोंका फाम पूरा नदीं होता है । कदाचित्‌ रात्रि व्यतीत ज्यादा हो जाए ओर निद्रा आने पर सो जायेगे, किन्तु जागने पर फिर वही गप्प प्रारम्भ हो जायेंगी । फितनी ही गप्पें सुनते जावो, पर सुननेका काम पूरा नहीं होता | यह अन्तस्तत्त्वकी चर्चा इतनी विशुद्ध चर्चा है कि इसके सुनने पर तृप्ति हो जाती है, सब कुछ सुना हुआ हो जाता है । का दृष्टान्त श्र भ्रदृष्टपुव॑ं-- इसी प्रकार लोकमें कहीं भी छुछ भी रूप देखा, देखते जावो; पर देखने से तृप्ति नहीं होती है, परन्तु एक केचल ज्ञानदशनसुखस्वभावरूप निज अन्तस्तत्तका अबलोकन हो जाए तो वहां परमपि होती है ओर उसके देखने पर सब कुछ एेख लिया समम लीजिए । एक अपने आपके अन्त.स्बरूपका ममं न देख पाया तो वाहरमें सब जगह देखने-देखनेफी कमी रहती है । एक आत्मस्वभावके देख लेते पर सघ कुदड्ध देख लिया गया । परिचितपूर्व और श्रपरिचितपुर्व-- जगत्‌में किली भी पदार्थों जाननेकी उत्सुकता बचायें। बच्चोको




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