अंतकृतदशांग सूत्र | antkritdashang Sutra

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antkritdashang Sutra  by आचार्य श्री नानेश - Acharya Shri Nanesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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7 सौर साघनापथ पर आरूढ होकर उय तपाराथता से अपनी-अपनी आत्मा को निर्मेल नाते हुए मोल्लावस्था को प्राप्त किया । प्रथम वर्ग से लेकर पाचदे वर्ग पर्यन्त सवेज्ञे-स ज्ण वानदेव का च्खंन चता हे) वासदेव की न गई ১২ बसे ~ ২ ङ्ष्णय পি जेन यथो मे जिस प्रकार हृष्ण सदेव क्य चचं। की गई ই वस हा श्रां छृष्ण के चच। ट ০২ साथ विशेषकर स वश्पकर ४ अहंन्त हर्त /1॥ दिक एव रौद्ध गथो मे भी पर्याप्त मात्रा मे मिलती है । 7] वैदिक परपराओ मे छृप्ण-वासुदेव के विष्णु, नारायण, गोविन्दप्रभृति अनेक नाम मिलते कूटलाए দাই = पत्र = ( वासदेव ~> : । घ्नी ष्टा जनुदेठ कत पुत्रथे इसलिये वे वाचुदद कहला পি लिए क न श সি = = क गीता में भरी कृप्ण च्प्पु के पुव चव्तारकतं रूप मे माने जाते है ।! महाभारत मे उनकी সি क ~, [न ২২, সি পি = रायस के रूप मे स्तुत्ति कौ गई है तंत्तियारण्यकमे श्रौ छृप्णको सवंगुरा सयन्न >= + ইউজ? ই 1১ पदमपुरा वायपरारा चामनपराय ५ कम॑प्रारा वह्मवेवर्तपुरारण ২ हरिवशप्राण সস एव = प्रीमद ভ্যান वायुयुराण च्ननपुरख. जमपुर, ज्हूववतपुराखः ह्‌।रवरपुराख एव श्रामदू- পপ क লস কচ লা वन कया गया है । इसी ज्र दोद्ध साहित्य के घट जातक मे श्री ক্যা ক न मिलता है 1: जैन परम्परा मे श्रो कृप्ण अत्यन्त दयालु, नोति प्रधान मातृभक्त कत्तव्य पराया एव जस्दी व्यक्ति के रूप में प्रतिपादित क्यि गये हैं । की ইত वानुदेव सहेन्त अरिप्टनेमि के परम भक्षत थे | तीन खण्ड का सचालन करने क्य युरुत्तर दाष्त्वि होते हुए नी इहृप्ण-डानुदेव जठ भरिप्टनेमि भगवान का द्ारिका के बाहर दार होता तवक्‍-तव झपने अन्य सभी कामो को स्थगित कर प्रभ॒ को वंदामि-नमंसामि करने एव उनको दिव्य जरा जय शक्रच्ण करने प्रभु शरण मे पहच जाते। अरिप्टनेमि प्रभ से ৯ ইত ন্‌ লী ছি ने ज्पेषप्ठ थे। तो आध्यात्मिक दृष्टि से श्री रृूप्ण से आऋरिप्ट्नेमि प्रभ উল थे 1 ্ प्रनु के सान्लिष्य के प्राप्त कर স্টী ইত ইবন স্মসিক্ি স্ানিজ ইহ कि सभी राज-पाट छोडकर दीक्षा लेने कया विचार करने रूगे किन्तु श्रामप्य पर्याय च्रंनीनार नही नर नक्ते, क्यो ক্ি উস = ने उष्ट्‌ निदान सूद था 1 इसी श्र द्‌ दतु रलास्यान सत भ नहीं




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