शुभदा | Shubhda

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Shubhda by शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय - Sharatchandra Chattopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ इस तरह की वात मुंह से न निकलने दूंगी । धास्तव में ललता ते बुआ को इतनी तीखी वात कह अनुचित कार्य किया था। उसकी माता ने कहा--/बिदिया, अब तुम बड़ी हो गई हो अुम्हें सोच-समझक़र हर एक बात मूँह से मिकालनी चाहिए 1 इस तरह की बातचीत के बाद पुत्री और ननद के आग्रह करने पर ललना की माता ने कुछ खाना ख़ाया । उसके बाद हो अपनी पाँच वर्ष की कन्या प्रमिला की अगली पकड़े हुए विन्ध्यवासिनी ने हाराण बाबू के घर में प्रवेश किया । सामने ही रासमणि खड़ी हुई थी । विन्ध्यवासिती की ओर चष्ट जाते ही उन्होंने कहा--'विन्दों तो भाई, अब इस ओर कभी दिखाई ही नही देती ।! विन्‍्दों दवने वाली स्त्री नहीं थी। हँसकर वह भी झट वीज उठी-- तुम्ही कां रोज खडी रहती हो दीदी ?' “मुझे क्था घर से पैर निकालने का अवसर मिलता है बहन ? छोटे लडके की बीमारी के कारण एक क्षण के लिए भी निकलने का समय नहीं मिलता 1 “उसे क्‍या हुआ है ?! बुखार दै, तिल्ली बद्‌ गई है, पेट मे न जने क्या-क्या रोग हो गयेहै ? उसे कोई रोग होने को वाकी नही है। हू कहाँ गई ?! “अभी ही उन्होंने जरा-सा खाया है, उसकमरे में लड़के के पास जाकर बंठी है 1 'खाने में इतनी देर कर दी है ?” 'हाराण की राह देख रही थीं। वह तीन दिन से घर नहीं आया। उन्होने सोचा कि सम्भव है आता ही हो । इसीलिये खाने में उन्हें इतनी देरी होगई। विन्दो वह्‌ सकी नहीं । दह सीधे उस कमरे मे गई, जिसमें बहू, গা छोटे लड़के माधव के सिरहाने बैठी हुईं उसे कहानी सुना रही थी 1




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