शरणागत | Sharanagat

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Sharanagat by वृंदावनलाल वर्मा - Vrindavan Lal Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शरणागत 41 रज्जब ने कमर की गांठ को एक हाथ से सँभालते हुये बहुत ही विनम्र स्वर में कहा, 'मैं बहुत गरीब आदमी हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है। मेरी औरत गाड़ी में बीमार पड़ी है। मुरभे जाने दीजिये ।' उन में से एक ने रज्जब के सिर पर लाठी उबारी । गाडीवान खिसकना चाहता था कि दूसरे ने उसे पकड़ लिया । तब उसका मँह खुला । बोला, 'महाराज, मुझको छोड़ दो । मै तो किराये पर गाड़ी लिये जा रहा हूं । गांठ में खाने के लिये तीन-चार आने पैसे ही हैं ।' 'और यह कौन है ? बतला ।' उन लोगों में से एक ने पूछा । गाड़ी- वान ने तुरन्त उत्तर दिया, 'ललितपुर का एक कसाई ।' रज्जब के सिर पर जो लाठी उबारी गई थी, बह वहीं रह गई । लाठी वाले के मह से निकला, 'तुम कसाई हो ? सच बतलाओ ॥' हां महाराज रज्जव ने सहसा उत्तर दिया, “मैं बहुत गरीब हूँ । हाथ जोड़ता हूँ, मुझको मत सताओञ्ो | मेरी औरत बहुत बीमार है !' ग्रौरत जोर से कराही । लाठी वाले उस झादमी ने अपने एक साथी से कान में कहा, “इसका नाम रज्जब है छोड़ो । चलें यहां से ।' उसने न माना ' बोला, इसका खोपड़ा चकनाचूर करो, दाऊजू, यदि ऐसे न माने तो । श्रसाई-कसाई हम कुछ नहीं मानते ।' 'छोड़ना ही पडेगा ।” उसने कहा, 'इस पर हाथ नहीं पसारेंगे और न पंसा ही छुयेगे ।' दूसरा बोला, 'क्या कसाईं होने से ? दाऊज़ू, आज तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये हैं--मैं देखता हूं । श्रीर तुरन्त लाठी लेकर गाड़ी मे चढ़ गया । लाठी का एक सिर रज्जब को छाती में भ्रड़ाकर उसने तुरन्त रुपया पसा निकालकर देने का हुक्म दिया । नीचे खडे हुये उस व्यक्ति ने जरा




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