भारतीय सामाजिक संस्थाएं | Bharatiya Samajik Sansthayen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आरतीय सामाजिक संस्थाएं-एक परिचय ५ संस्था के भ्रावश्यफ्‌ तत्व (55९०४०१ [शाला ण॑ ब्रा पित्तम) प्रत्येक सस्था के विकसित होने के लिए कुछ तत्त्व झनिवार्य हँ । समाज में पाई जाने चाली कोई शो सामाजिक सस्था इन भावश्यक तत्त्वो के ब्रभाव मे क्दापि विकसित नहीं हो सकती ६ ध्रत सस्या के भ्रावश्यक तत्त्व निम्नलिखित ह (१) विचार (05०)--यह सस्या का श्रायमिक तत्त्व है। विचार व्यक्ति के सस्तिष्क की वह सूछ है जिसे यदि क्रियात्मक स्यं दिया जय त्तो उससे उसकी श्राव यकपा पूणं हो सक्ती है। मनुष्य का यही प्राथमिक विचार शर्ने-शर्ते संस्था का रूप ले लेता है। भ्रत स्पष्ट है कि प्रत्येक सस्था का विकास किसी न किसी प्रकार के व्यक्तिगत विचार से प्रारम्भ होता है| (२) उद्देश्य (ए77००५०)--अ्रत्येक सामाजिक संस्था का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होना चाहिए 1 बिता उद्देश्य, कोई सस्था अधिक दिनो तक समाज मे जीवित नहीं रह सकती । समाज में जिन सरथाओ का उद्देश्य से साम्रओ्जस्य समाप्त हो जाता है, धीरे-धीरे उसका श्रस्तित्व भी समाप्त होने लगता है| * (३॥ संरचना (509०ए7०--मनुष्य वी श्रावश्यक्ताश्रो की पूति के सरलतम विवार कौ का्यूप देने के लिए जिन विधि-पिधानो कौ श्रपनाया जाता है, उसे सरधना फते है । प्रस्येक सामाजिक सस्था के लिए सरचना कौ नितान्त श्रोवध्यक्ता होती है जिसके श्रमाद मे विचार को वायं रूप मे परिणत नही क्रिया जां सक्ता ॥ (४) अधिकार एवं भ्रभिमत्त (8&ए॥७०1७ ४70 5071000॥)--प्रत्येक समाज किसी भी विचार, प्रया भ्रयवा नियम को जनहित मे उपादेय समभ कर उसे सुचारू रूप से विकसित करने के लिए अधिकार एवं प्रभिमत प्रदान कर देता है । प्रत्येक सामाजिक सस्या को समाज का प्रभिमत आवश्यक रूप से प्राप्त होता है । इसके साभ ही साथ प्रत्येक রা प्रपनों सस्थाझ्रो को कुछ अ्रधिकार भी प्रदान करता है जिससे उद्देश्यों की पूर्ति हो सके । (५) प्रतोक् (5ज्गाए०)--प्रतीक विभिन्न संरथा मे भेद करने के लिए भ्रपनायें' जाते हैं। प्रत्येक सस्था का कोई न कोई प्रतीक अवश्य पाया जाता है। प्रतीक मोंतिक अजना अभोतिक दोनो ही प्रकार के हो सकते हैं) संस्था के कार्य ([एप्रालाणा ० ब्रा 1751191195) साधारणतया सस्या के निम्नलिखित प्रमुख कार्य होते है -- (१) मानव आवश्यकताओं कौ पूति (8६१1519९01० ० 80090 ग८९१$)---प्रत्येक संस्था का जन्म मानव वो कसी न किसी झ्रावश्यक्ता को लेकर होता है । अव संस्थाएं मानव आवश्यकताओ की पूर्ति में सहायक होती हैं। ये मनुष्यो के साभूहिक कल्याण को ध्यान मे रखते हुए मानव आवश्यकताओं की ঘুরি কী ই ॥ संस्थाएं साधन हैं साध्य नही । सस्याप्रा का विकास इसलिए किया जाता है कि वे मानव की किसी न किसी आवग्रयक्ता কী খু দই | अत आवश्यकताडो की पूर्ति करना प्रत्येक सस्‍्था का सा्व- भौमिक एव प्रमुद्ध कार्य है। इसके झभाव मे वे अपने अ्रस्तित्व को नहीं बनाये रख सकती 1 सस्या दीका तक मनुप्यो की सेवा करती हैं। इसी बात को हृष्दिगत रखते हुए मकाइवर ने लिखा है, (सामाजिक संस्थाएं) मनुष्यों को पराजित करने के अपने अधिकार पर जीबित नही हैं, श्रपितु उनकी सेवा करने के लिए हूँ और जब वे सेवा बरता बन्द कर




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