आनन्दधन - ग्रन्थावली | Ananddhan - Granthavali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ২ ) नही है वल्कि आठों जन्मों से चने हुये सवध को अक्षुण्ण बनाये रखने व पूर्ण आत्म समर्पण का अद्भुत एवं बेजोड़ वर्णन है। सच्ची साध्वी स्त्री का कार्य पति मे दोष निकालना नहीं है किन्तु पत्ति के पद- चिह्लों पर चलकर आत्म समर्पण है । पति जिस मार्ग जावे उसी भार्ग का अनुसरण पत्नी के लिये श्र य- स्कर है | राजिमती ने यही किया और रवामी से पूर्व ही भव-वधनों को तोड डाला और मोक्ष में पति का स्वागत करने के लिये पहिले ही पहुंच गईं कति का इस प्रकार का वर्णन इसी बात का द्योतक है। आत्मोत्काति की भूमिका मे जो बात प्रथम स्तवन मे---“कपट रहित थई आतम अरपणा रे, आनदघन पद ই” कही है उसही की परम पुष्टि इस स्तवन मे इस प्रकार की है--^सेवकपण ते ग्रादरे रे, तो रहै सेवक माम । प्राशय साथे चालिये रे, श्रेहिज रूडो काम 1” इससे बढकर कौन सा आत्म समर्पण होगा ? कौन सा त्याग होगा ? कौन सा योग होगा? ससार से मुक्त करानेवाला व्यापार ही तो, समर्पण, त्याग और योग है । ऐसे उच्चाशय वाले स्तवन पर श्री कापड़िया जी का शका करना निरा- घार ही कहा जा सकता है। ऊपर के विचार श्री कापडियाजी के चौवीसी तथा बावीसबे स्तवन के लिये उठाई गई शका के सम्बन्ध में है। श्रव श्री आनदघनजी की रचना-पदा- वली के एक शअ्रन्य सपादक व विवेचक आचार्य श्री बुद्धिसागर सूरिजी के विचार दिये जाते है। आचार्य श्री का कथन है--“अन्य दर्शंनीय विद्वानों का कथन है कि प्रथम सगण की उपासना-स्तुति की जाती है, तत्पश्चात आध्यात्म ज्ञान मे गहरे पैठते के पश्चाद निगु सख॒ की उपासना-भक्ति की ओर अग्रसर होना पडता है | यद्यपि इस प्रकार की शैली जैन विद्वानो मे दिखाई नही देती है तथापि इस बात को माना जावे तो श्रानदघनजी नें गुजराती भाषामे चौवीसी की रचना की, फिर मारवाड मे घ्रूमते हुये लोगो के उपकाराथं त्रजभाषा मे पदों कौ रचना की ।” आगे वे लिखते हैं-“एक दत कथा सुनने मे आती है कि एक समय श्री झ्रानदघनजी शत्र्‌ जय पर्वत पर जिन दर्शन करने गये हुये थे । उन्ही दिनो श्री यशोविजयजी और श्री ज्ञानविमलसूरिजी श्री आनदघनजी से मिलने के लिये शत्रुजय पर गये थे। श्री आनदघनजी एक जिन मंदिर मे प्रभु की स्तवना




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