निशिकान्त | Nishikant

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Nishikant by विष्णु प्रभाकर - Vishnu Prabhakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निशिकान्त ६ जानताहै; तू ही जानता ` | वह सजन मानो शून्य मे अविभूत होने लगे, क्लेकिन दृसरे ही हण सहसा जागकर उन्होने कहा, “बच्चो ! जब उखक याद श्राती दहै तो हृदय में टीस उठने लगती हे ; लेकिन” ' लेकिन मेरे बच्चो ! क्या किया जाय'' ? मैं इन लोगो को अपने पास ले आया हैँ । बेचारे परदेशी हैं। घर तार दिया है । किसी के श्राने तक यहीं ठहरेगे 1 वे बातें कर रहे थे। परन्तु माँजी का आतेनाद डसी तरह उठ रहा था | वह कभी चीत्कार कर उठतीं, कभी सिसकने लगतीं । कभी-कभी उनका स्वर इतना गिरता कि पिल्ले की चीं-चीं से श्रधिक तेज आवाज पेदा नहीं कर पाता था । उस समय जगता था कि यह शब्द्‌ अरब बन्द हुआ, अब बन्द हुआ । लेकिन दूसरा कषण श्राता, “'हाय मेरे बेटे, मेरे लाल, मेरे मोहनः की करुण पुकार हृदय मे पंच की तरह टीकनं लगती, जो सीधी नही, अपितु चारो तर एक गहरी कुरेदना ॐ साथ रएंठ-पर-एढ देती हुईं प्रवेश करती है । दूसरी ओर रात श्रविराम गति से आगे बढ़ रही थी । समदर्शी चन्द्रम की मधुर चाँदनी आंगन में उतर आईं थी ओर डस श्रालोक में तारों की छवि सन्द पढ़ गई थी , पर नील गगन मुखरित हो उठा था। वह सजन बोल ' उठे, “दस बजने वाले हैं शोर बच्चो ! तुम्हें दूर जाना है । तुम लोग बड़े अच्छे हो | इतना कष्ट किया 1? उठते-उठते कुमार ने कद्दा, “जी कष्ट क्या है १”, “बेशक बच्चो, कष्ट कुछ नहीं है। प्यार के दो शब्द सुर्दा शरीर में: जीवन फू क देते हैं। परन्तु आज यही दो शब्द महँगे हो गये हैं।” “जीहाँ, आप ठीक कहते हैं।”? कान्त बोला और वे ल्ोट चले । देहरी 'पर आकर कान्ति सहसरा ठिठका और मझुड़कर उसने दद स्वर मे कदा, “माजी ! में कल फिर आऊँगा।?? ओर फिर वे झ्न्धकार में श्रदश्य हो गए | क्षण-भर बाद वें सड़क पर थे और उनके पीछे किवाड़ बन्द हो चुके थे । धही सन्नाटा, वही मरघट कीः




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