सारंग | Sarang

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Sarang by दिनेश नन्दिनी - Dinesh Nandini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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১৫১৬১১১১০০১ 1 ५ | बरस चुकी अब क्या बरसेगी ? सूक बनी সবি तरसेगी ! सूचित कर आगम बेला भी नही अवेगे-- मधुर उलहने अश्रुपात सुन रुक जावेगे । कठिन तियति मन से हर्षेगी आँखें प्रतिपल ही तरसेगी ! व्यर्थ जायगा मान अनिरचय की घड़ियों में-- मूछित होगे प्राण प्रतीक्षा की कड़ियों में , दुःख की हरियाली सरसेगी मूक बनी प्रतिपल तरसेगी ! अस्त व्यस्त श्रृंगार मिलन के साज सलौने स्वप्त-रहित निद्रा में निशि के राज अलौने कल्पित चरणों को परसेगी , मूक बनी प्रतिपल तरसेंगी ' সরস গুনে वदप. ५०१४-५० १ ४ ११ 44 ८५७५८०८० ०544 4०४०५




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