सार्थवाह | Sarthvah

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Sarthvah by डॉ मोतीचंद्र - Dr. Motichandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ३ ) (७ ) जो सब प्रकार से रदित भ्र क्याशकारी पथ है, दे एथिवो कौ प्रसन्नता के सूचक हैं । भारत के सहापथो के किये थे भादश झाज भी रतने हौ पक्के हैँ जितने पहले कभी थे । भारतवर्ष के सबसे महत्वपूर्ण यात्रा-मार्गं 'झत्तरो महापध' का बणन इस प्रन्थ में विशेष ध्यान देने योग्य है। यह महापय किस्री समय कारिपयम समुत से चीन शष पथं बाहीक से पाटक्षिपुत्र-ताभ्रलिप्ति तक सारे एशिया भृखंड की चिराट्‌ धमनी थो। पाणिनि (५०० ई० पूं:) मे इसका सलत्कात्नीन संस्कृत नाप्त 'डत्तपथ” त्ख है ( उत्तरपथेनाहत॑ च, ९१७७ ) | इस ही मेरास्थने ने 'नादेस रूट' कहकर उ-के विभिक्षा भागों का परिचय दिया है | को टिल्य का द्वेमवत पथ इसका ही बाशहदीक-सरशिज्ाबाला टुकड़ा था । इस टुकड़े का साँगापांग इतिहास क्र विद्वान्‌ श्री फूरो ने दो बढ़ी जिहदों में प्रकाशित किया है| दृर्ष की वात हे कि उस भौगोलिक सामप्रो का भरपूर उपयोग प्रह्तुत प्रम्थ में किया गया है । ० ११ प्र हारहूर की ठीक चान हर हती या भरग- दाज ( दव्खिती अफगानिस्तान ) के इज़ाके से है। हेरात का प्राचीन हैरानी नाम हरहव ( सं० सारव ! था। नदी का नाम सरयू झाधुनिक हरीरूद में सु'स्षित है। एृ० ११ पर परिसिन्धु का पुराना माम पारेसिस्धु था णो म्रद्दाभारत में झाया है। हसी का हू-ब हू झज़रेजी रूप ट्रांसईइंडस है। पाणिनि मे सिन्‍थ के उस पार की मशहूर घोड़ियों के किये पारेवढवा, ( ६।२।४२ ) नाम दिया है। भारतीय साहित्य से कई परथों का ब्योरा मोतीचंद्रजी ने हूंढ़ निकाज्ा दे। इतिदास के क्षिये साहित्य के डप्योग का यह बढ़ा डपादेय ढंग है। महाभारत के नद्लोपाण्यान में ग्वालियर के कोतवार प्रदेश ( चअस्बद्द- बेतवा के बीच ) में खढ़े इकर दुक्खिन के रास्तों की झोर ईष्ट डढाछते हुए कटा गया है-पसे गच्छुम्ति बद्दवः पस्थानो दुच्चिणापथम्‌ ( वनपवं ४८२ )। और इसी प्रसंरा में 'बहबः पन्‍्थानः” का ब्यौरा देते हुए बिदृभ मार्ग, दुछिण कोसकमार्ग और दक्षिणापथ मागं इन तीन्‌ पथो कनाम दिये हैं। वस्तुतः झाज तक रेल पथ ने ये ही मां पकड़े हैं । बेदिक साहित्य में साथंवाह् शब्द नहीं आता; किन्तु पणिण नामक ब्यापारी और घाणिज्य का वर्णन भाता है। यह जानकर प्रसन्नता द्वोती द्वे कि पूंजी के अथ॑ में प्रयुक्त हिस्दी शब्द रा! 'प्रथ' से निकल्ना है जो वैदिक शब्द (रथिन्‌, ' पूजीवाल्ला में प्रयुक्त है। बेदिक साहित्य में नौ सम्बन्धी शब्दों को बहुतायत से स्रमुद्रिक यातायात का भी संकेत मिलता है वेद्‌ नावः समृदियः) | क्गमभग (वीं शतती ईं पू० के बौद्ध साहित्य से यात्रा ঈ विषयमे बहुत तरह कौ जानकारो सरिडने करती है! यात्रा करनेवाला में व्यापारी वर्ग के अतिरिक्त साधु-संन्‍्यासी, तीथयान्नी, फेरीवाले, घोड़े के ब्यापारी, खेल- तमाशेवाक्षे, पढनेवाल्ते छ्वात्न एवं पढ़कर देश-दशन के किये निकलनेवाले चरक नाम विद्वान्‌ सभी तरह के कोर थे। पर्थों के निर्माण और सुरक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाने खगा था। फिर भी तरह-तरह के चोरहा मागं पर क्षरते थे जो पान्थधातक था परिपस्थिन्‌ कहे अतेये ( पाणिनि सूत्र ।४।९६ परिपस्थं च तिष्ठति )। पाणिनिसूत्र ३1२८६ की टोका में एक प्राचीन बेदिक प्राथेना डदाइरण के रूप में मिज्ती है-मा सवा परिपन्थिनों विदन्‌ , भ्रर्थात्‌ भगवान्‌ करे कहीं तुम्हें रास्ते में बटमार क्लोग न सिल्ते |!




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