जीवन की पगडंडियाँ | Jivan Ki Pagadandiyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
160
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१ | हीरा जनम श्रमोल यह् !
प्राज भारत की ही नही विश्व की जनसस्या तेजी से बढती जा रही है।
पर जिस अनुपात में जन होने का भाव ग्र्थात् मनुप्यता का विकास होना चाहिए,
वह नही हो पा रहा है । मनुष्य जन्म मिलना एक बात है और मनुष्य जन्म पाकर
मनुष्यता का विकास होना दूसरी वात है । मनुष्य जन्म प्राप्त करना श्रपने श्राप मे
एक बडी उपलब्धि है, क्योंकि मनुष्य की ऐसी कुछ नेसगरिक विशेषताएं है जो ग्रन्य
जीवधारियो मे नही मिलती । जैसे बुद्धि का प्राप्त होना, श्रतीत की बातो को याद
रखना, भविष्य की कल्पनाएँ करना और मन के भीतर गहरे उतर कर आत्मलीनता
की भनुभूति करना । ऐसा मनुष्य जन्म सहज प्राप्त नही होता । सस्कारगत सहज
मरलता, विनम्रता, दयालुता श्रौर अ्रमत्सरता ज॑से सदगुणों से ही इसकी प्राप्ति
सभवे हौ सकती ह ।
पर कितने ऐसे लोग हैं जो हीरे के समान प्रनमोल मानव जीवन को प्राप्त
कर उसकी रक्षा और वढोतरी के लिये प्रयत्नशील रहते है ? मनुष्य अपनी श्रेष्ठता
को आन्तरिक सर्प से ही प्रकट कर सकता है। यद्यपि यह अन्य जीवधारियों की
तरद श्राहार करता है, नीद लेता है तथा श्रन्य दैहिक कार्य सम्पन्न करता है पर यह
मवतो उसकी पशृता का ही प्रकटीकरण है । लार्ड वेकन ने बहुत ही सुन्दर ढग से
कहा है--'मनृष्य जो कुछ खाते है उससे नही, किन्तु जो कुछ पचा सकते है, उससे
बलवान् बनते हैं | पढते हैं उससे नही, जो कुछ याद रखते हैं, उससे विद्वान् होते
है । उपदेश देते हैं, उससे नही, जो झ्राचरण मे लाते हैं, उससे धर्मात्मा बनते हैं ।*
वस्तुत मनुष्य जन्म प्राप्त करना ही पर्याप्त नही है वरन् उसे सार्थक बनाना
भी महत्त्वपूर्ण है। “उत्तराष्ययन सूत्र” में भगवान महावीर ने कहा है--इस ससार
में प्राणियों के लिए चार प्रग परम दुर्लभ हैं--मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, धर्मश्रद्धा और
सयम मे पुरुपार्थ श्र्थात् धमं प्रवृत्ति ।* जो मनुष्य, मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी उसे
१ चत्तारि परमगाणि, दल्लहाणीह् जत्णो ।
माणुसत्त सुई सद्धा, सजयम्मि य वीरीय ॥ ३/१ ॥
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