आँखों की थाह तथा अन्य कहानियाँ | Aankhon Ki Thah tatha anay kahaniyan

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Aankhon Ki Thah tatha anay kahaniyan by राय कृष्णदास - Rai Krishnadas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रखो की थाह था कर के... दल के यहाँ जाने-जुलाने टेनिस वा सिनेमा में बीतिती- और सुखमा का इनमें सहयोग रहता । सुखमा का व्यक्तित्व इतना मधुर आर झ्ाक्षक था कि अनायास लोग सुस्थ दो जाते । किंठु जहाँ यह था वहाँ उस एक मर्यादा भी थी । देवेस्द्रनाथ का मित्र-वर्ग भली भॉति जानता कि निश्चित सीमा के द्रागे वह एक पग भी नहीं बढ सकता सुखमा भले ही उसके प्रति कितनी दी उन्मुक्त क्यो न हो । देवेद्रनाथ श्र सुखमा ने एक ही विषय की डिग्रियों ली थी । कालेज के दिनो मे सुखमा वहुत ही अध्ययन और मननशील थी और यदि प्राफेसर साहब के मन म यह आशा थी कि वेवाहिक जीवन में सुखमा उनके डाक्टरेट के लिये खोज से हाथ बेटावेगी तो वह सवंथा स्वाभाविक थी । किंतु कोटुब्रिक जीवन के झरभ होते ही सुखमा की वह श्रध्ययन-मनन-शीलता तिंरोहित हो गई श्रौर रज-गज संध्या के याद जब देवेंद्रनाथ द्रपने पठनागार मे बैठकर अपने खोज के काम से प्रदत्त होते तो सुखमा एक मिनट के लिये भी उनका साथ न देती यद्यपि उसे डाइगरूम में झ्रकेले बैठना बहुत हो खलता और रेडियो इसराज श्र व्यस्त-शब्द-पदेलियोँ उसके लिये तनिक भी मनोरजन की सामग्री न चन पाती । यहाँ तक कि कुछ ही देर मे ऑअगडाई श्र जभाई लेती हुई वद्द खाट पर जा पढती | उधर देवेंद्रनाथ भी यद्यपि वह किसी भी रात बारह से पहले न सोते श्रौर कभी-कभी तो दो बज जाता द्रपने खोज के काम मे भरमा ही करते और उन्हें ऐसा लगता--वास्तव में बात भी ऐसी ही थी--कि दे फिप्ी निश्चित परिणाम पर पहुंच ही नहीं पाते । दोनों ही एक दूसरे




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