शान्ति सोपान | Shanti Sopan

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Shanti Sopan  by गौरीशंकर - Gaurishankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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+ शति-स्षोपान देते मे के मेरे अत्यन्त स्नेह भाजन थे दन्तु जो न स्वय सोतेये भ्रौरन दूसरों को सोने देते थे जख कि प्रथित, उमस्हलिक -वि मेरे .अ्नन्तडिक कोप के ही नहीं यल्कि घृणा के भी पात्र थे | रात्ि में जब कभी सेरी नींद সুজ আবী और में उन्हें पढ़ते हुए देखता तो मुके डनकी दस बेवक्रफ़ी पर हँसी अस्ये बिना न रहतो | में सोचता- यद्द कितने बेवक़्फ है ओ इतना पढ़ लिखकर भी इस सुहावनी रात में जो केवल सोने के लिए दी बनाड़े गई है, पुस्तकों में शिर खपाते हैं । जब में इतना पढ़ जाऊँगा तो सोने के सिवाय दूसरे काम को हाथ भी न ल्मराझगा। में और भी सोचता-- ८ झमीर-उमराव तो लम्बी तान कर सोते हैं। यह केसे उमराव हैं जो रातों जगते हैं ? उनके उमरावर्सिद्द नाम के प्रति मेरे शयन प्रिय बान्नहृदय में जो विद्वाह उत्पन्न हो गया था वह तब शान्त हुआ जब हमारे उदासीन प जी ने अपने वेष के साथ ही साथ नाम भी बदल्ल डाला और ब्रद्माचारी श्ञानानन्द के नाम से स्यात हुये । उन दिनो भारतवर्षीय दि जेन मदासमा कै আসিব मथुरा महा विद्यालय की श्रान्तरिक दशा बहूव शोचनीय थी । कै वष योग्य अभि आवक निरीक्षक के अभाव से गृह-कलह ने अपने पैर जमा छिये थे । अध्यापको को समय पर वेतन भी न मिलता था। उमरावसिह क्रो जब अढ्ाचारी हुए थे उनका कई मास का वेसन विद्यालय पर अवशेष था। मथुरा को समाज और मद्रासभा के अधिकारी दोनों ही डस ओर से डदासीन हो गये थे | त्र ज्ञानानन्द जी ने पने अभ्यापन-कोख म इस प्ररिसश्थिति को हृदयंस्रस किया । उल्हें यह क्गा कि अब दस स्थान में यद्व विद्याक्लय न ्ठल्ञ सकेगा । यदि हष्षका जलवायु बदल दिया जाय तो शायद यह सत्यु के सुख से बच जाय । बरह्मचारी होते हौ उन्होंने अपना ध्याय उस ओर ভিলা । म्यावर के स्वर्गीय तेठ च्स्पाङ्लक्ञ ओ रनीवादों ने कुछ आश्वासन दिया । ढूबते हुए को तिनके का सहारा मिल्ा जहातचारी जी काया छोटेजाज जी भरतपुर के सहयोग से विद्यालय को चरासी (मथुरा) से ब्यावर के गये | मथुरा वालों ने बहुतेरी 'दाय-लोका! की




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