अभिषेकपाठ-संग्रह | Abhishekpath-Sangrah

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Abhishekpath-Sangrah by इन्द्रलाल शास्त्री जैन - Indralal Shastri Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लष्मीरात्यन्तिकी यस्य निरवधावभासते |. देवनन्दितपूलेशे नमस्तसमे स्वयम्सुवे ॥ १॥ सिद्धिप्रिय का यह अन्तिम पद्म है, यह पथ्य पढारचक है। यथा-- तुष्टि देशनया जनस्य मनसे येन स्थितं द्वित्सता, सव वतु विजानता शमवता येन क्षता क्रत | भव्यालंवकरेण येन मद्दतां तत्त्यप्रणीति; झअता, तापं हल्तु जिनः स मे शुमधियां तातः सतामीशिता॥ २५ दोकाकार लिखते हैं “देवनंन्द्कति: इत्यक्ृगर्म, पढारचक्मिद |? इस छंद को षडास्य के आकार में लिखने पर ऊपर के तीसरे वलयम 'देवनदिक्ृति? ऐस। निकत्त आता है। ६ = इस तरह अपना नाम सूचित करने की परिपरी ओर भी अनेक प्रत्यकर्ताओं की देखी जांती है। वह उन के ग्रन्थों में सुसपष्ट है। पूजासार नाम का एक प्न्य है, उस मे यह्‌ 'अभिषेकपाठ' पुर्ण उद्धृत है। पूजासार कमसे कम पांचसो वर्ष का पुराना है अतःआज से पौंचसौ बे पहले अर्थात्‌ वि० सं० १५०० के लगभग भी इस का अस्तित्व था। - अयप्पाये ने 'जिनेन्द्रकल्याणाभ्युद्या नाम का भन्‍्थ शक सं० २४१ विः सं° १६७६ मे वनाया है । उस में वह उल्लेख करता है कि- “इठि पूज्यपादाभिषेकेश गर्माकुशामिपेकेश या तद॒पेणममिषि- ध्याएदिधादनेः ध्वजपटमन्यच्ये लयनोन्मीलनादिक कुयोत्‌ |? এ पर से दो दातें साबित होठी हैं। एक तो पृज्यपाद का कोई सभपेद्ध दिपय का प्रन्थ है। दूसरी विक्रम को चौद्हर्वी शताब्दी में भी पह्‌ प्रन्य थे! ६ अ (६४ ) में निम्न लिखित दो पच्च दिये गये हूँ |




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