चांदा सेठानी | Chanda Sethani

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Chanda Sethani by यादवेन्द्र शर्मा ' चन्द्र ' - Yadvendra Sharma 'Chandra'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चाँदा सेठानी : 15 मोरी पर भा गयी। आँख पर बफारा लगाती हुई बड़वड़ा उठी, “इस राम के मारे बीकामेर में अंधड के सिवाय कुछ है हो नहीं, दिन में पाँच वार झाड़ -बुहारी करो, फिर भी रेत ही रेत मिलती है।” कांसी पानी का लोढा ले आयी थी। सेठानी ने अपने हाथ में लेकर दोनों आँखों में छापके मारे । मुंह धोया और दो घूँट पानी भी पिया । “परेशान हो जाती हूँ मैं तो ?” कासी ने दाशंनिक की तरह कहा, “१रेशान हो जाने से क्या होगा ? सेठानी जी ! हमें तो सारा जीवन इसी बीकानेर में भुजारना है। आधी से अधिक बीत गयी, जो बाकी बची है वह भी इस तरह अन्धड़ सहते-सहते बीत जायेगी ।” सेठानी भीतर आते-आते रुकी । बोली, “कासी बीनणी (बहू) कहाँ है?” “सेठानी जी, वह अपनी मौसी के गयी है !” “मुझे बिना पूछे ही ?” कासौ ने कोई उत्तर नही दिया । “बता, यह भले घर की लुगाइ के लक्षण है? सास को विना पूछे घर से बाहर कदम रखना कितना वडा कसूर है ? यदि हमारा जमाता होता तो मास ऐसी धुमन्तू बह को दुवारा घर मे पाँव रखने नही देती । बड़ी निलंज्ज हो गयी है यह तो !” कासी ने कहा, “सेठानीजी ! मुँह मे मूंग डालकर बैठी रहिए । किसे नेंगा करोगी ? दायी को या वायी को ? किसे भी नंगी करो, नंगी अपनी ही होगी, शर्म अपनों को ही आयेगी, इज्जत घर की ही जायेगी 1 सेठानी चुप हौ मयी । खिडकी में बैठ गयी । गलियाँ सूनी थी । ईदगाह बारी की ओर से एक लादे वाला आ रहा था। लादेवाला फोग को लकड़ियाँ ऊँट पर लादे हुए था । लकड़ियों को इतने तरकीब से थाँघा हुआ था कि वह उसके बीच बैठ सकता था । मोटी डोटी की कमीज, पंछिया, सिर पर चियड़ें-चियडे सा साफा, पाँवों मे फटी-जूनी पगरखो जो बदरग हो गयी थी ।




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