आदिम सत्यार्थप्रकाश और आर्य्य समाज के सिद्धान्त | Aadim Satyarthprakash Aur Aaryya Ke Siddhant
श्रेणी : धार्मिक / Religious, पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
343
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[| ७ ]
व्यय हुआ उसकी ओर ही संकेत है ॥ बस यह स्पष्ट सिद्ध है कि स्वामी दया-
नन्द ने जो अपने ब्यास्यान पंडितों को लिंखवा दिये, ओर जिन्हें स्वयम् पद वा सुन
कर उनके संशोधन का भी अवसर न मिला, और जिनके छपतेहुए प्रूफ
भी देखने उन्हें न मिले, और जिनके लिखने, छपवाने और झोपने वाले वे
पंडित थे जिनकी आजीविका पर स्वामी दथानन्द कृडाराघात कर रहे थे, वही
आदिम सत्यार्थ प्रकाश है |
जो अन्थ एसी प्रतिकूल अवस्थाओं में तय्यार हुआ दो उसे अपूर्व मैंने
क्यों लिखा ? इस लिए कि स्त्रामी शंकराचार्य के वेदान्त भाष्य के प्रस्वातु यदि
कितनी मन्थ ने भारतवर्ष में भोंचालवत हल चल डालदी तो वह यही ग्रन्थ है ।
शंकर स्वामी को दो मुखी लड़ाई लडनी पड़ी । स्वामी दयानन्द को चौमुखा
ही नहीं, चहुंमुखा युद्ध करना पड़ा | इसी लिए स्वामी दयानन्द ओर उनके
मिशन के शत्रु भी अधिक संख्या में थे । ये सब कुछ होते हुए भी मेरी सम्मति में
आदिम सत्याथ प्रकाश की उपयोगिता को विरोधी कम न कर सके
ऋषि दयानन्द के जीवन क्राल में ही जो पचास के र्ग भग आयं समाज
स्थापित हुए ओर जो सइझ्रों व्यक्तियों ने सनातन वैदिक थर्म क्री शरण ली वह
इसी * आदि अन्य! का चमत्कार था; फिर आइचर्य होता है कि इसको आर्य-
पुरुषों ने उपेक्षा की दृष्टि से क्यो देखा । असछ बात यह दे कि जब पहले
सत्यार्थप्रकाश की छपी हुई सत्र प्रतियां समाप्त हो गईं ओर संशोधित सत्याथ-
प्रकाश छप कर जनता के हार्थों में चछा गया तो फिर पुराने की ओर दृष्टि
करता केबल उन पुरुषों का ही काबव था जिनकी ऐतिहासिक अन्वेषण में कुछ
रुति हो । सो ऐसे पुरुष उस समय आर्यसमाज में थे नहीं ।
इसमें संदेह नहीं कि जिन पंडितों ने आदिम -सत्याथप्रकाश, स्वामी
दयानन्द् के व्याख्यान रूप में, लिखा था उन्होंने कुछ स्थानों में उम्तन ध्वामीजी
के आशय के विरुद्ध भी लिख दिया । इन, गन्थकर्ता के आशय से विरुद्ध,
अशुद्ध लेखों के दो ही कारण हो सकते हैं |या तो लिखने वाले पंडित ऐसे मूर्ख
थे कि स्वामीजी के आशय ओर शब्दों का ठीक न समझ सकते थे, अथवा
उन्होंने कुटिलता से कुछ अपने मतहुब की बातें डाल दीं ओर ऋषि दयानन्द
ने उदार भाव से उन पंडितों को कुटिल न मान कर उन्हें मूख ही मान लिया ।
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