आदिम सत्यार्थप्रकाश और आर्य्य समाज के सिद्धान्त | Aadim Satyarthprakash Aur Aaryya Ke Siddhant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[| ७ ] व्यय हुआ उसकी ओर ही संकेत है ॥ बस यह स्पष्ट सिद्ध है कि स्वामी दया- नन्द ने जो अपने ब्यास्यान पंडितों को लिंखवा दिये, ओर जिन्हें स्वयम्‌ पद वा सुन कर उनके संशोधन का भी अवसर न मिला, और जिनके छपतेहुए प्रूफ भी देखने उन्हें न मिले, और जिनके लिखने, छपवाने और झोपने वाले वे पंडित थे जिनकी आजीविका पर स्वामी दथानन्द कृडाराघात कर रहे थे, वही आदिम सत्यार्थ प्रकाश है | जो अन्थ एसी प्रतिकूल अवस्थाओं में तय्यार हुआ दो उसे अपूर्व मैंने क्यों लिखा ? इस लिए कि स्त्रामी शंकराचार्य के वेदान्त भाष्य के प्रस्वातु यदि कितनी मन्थ ने भारतवर्ष में भोंचालवत हल चल डालदी तो वह यही ग्रन्थ है । शंकर स्वामी को दो मुखी लड़ाई लडनी पड़ी । स्वामी दयानन्द को चौमुखा ही नहीं, चहुंमुखा युद्ध करना पड़ा | इसी लिए स्वामी दयानन्द ओर उनके मिशन के शत्रु भी अधिक संख्या में थे । ये सब कुछ होते हुए भी मेरी सम्मति में आदिम सत्याथ प्रकाश की उपयोगिता को विरोधी कम न कर सके ऋषि दयानन्द के जीवन क्राल में ही जो पचास के र्ग भग आयं समाज स्थापित हुए ओर जो सइझ्रों व्यक्तियों ने सनातन वैदिक थर्म क्री शरण ली वह इसी * आदि अन्य! का चमत्कार था; फिर आइचर्य होता है कि इसको आर्य- पुरुषों ने उपेक्षा की दृष्टि से क्यो देखा । असछ बात यह दे कि जब पहले सत्यार्थप्रकाश की छपी हुई सत्र प्रतियां समाप्त हो गईं ओर संशोधित सत्याथ- प्रकाश छप कर जनता के हार्थों में चछा गया तो फिर पुराने की ओर दृष्टि करता केबल उन पुरुषों का ही काबव था जिनकी ऐतिहासिक अन्वेषण में कुछ रुति हो । सो ऐसे पुरुष उस समय आर्यसमाज में थे नहीं । इसमें संदेह नहीं कि जिन पंडितों ने आदिम -सत्याथप्रकाश, स्वामी दयानन्द्‌ के व्याख्यान रूप में, लिखा था उन्होंने कुछ स्थानों में उम्तन ध्वामीजी के आशय के विरुद्ध भी लिख दिया । इन, गन्थकर्ता के आशय से विरुद्ध, अशुद्ध लेखों के दो ही कारण हो सकते हैं |या तो लिखने वाले पंडित ऐसे मूर्ख थे कि स्वामीजी के आशय ओर शब्दों का ठीक न समझ सकते थे, अथवा उन्होंने कुटिलता से कुछ अपने मतहुब की बातें डाल दीं ओर ऋषि दयानन्द ने उदार भाव से उन पंडितों को कुटिल न मान कर उन्हें मूख ही मान लिया ।




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