दिगम्बर जैन सिद्धांत दर्पण | Digambar Jain Siddhant Darpan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
380
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ड |
जैसे महानुभाव बम्बई में निवास करते हैं। अतः
दिगम्बर जैन संस्कृति की जड़ पर प्रोफेसर हीरात्राज
जी द्वारा कुठाराधांत होते देख बम्बई पंचायत में
बहुत ज्ञोभ फैला। उस ज्ञोभम को शांत करने के
लिये तथा इस विषय का अकांस्य निर्णय कराने के
लिये उसने निश्चय -किया )
तदनुसार बम्बई पंचायत की ओर से प्रोफेसर
साइब के उक्त लेख की प्रतिलिपि पाकर विचार-
হ্যা दिगम्बर जैन विद्वानों; पूञ्य चाचार्यो, सुनियो,
श्राथिक्ना्मो, पेलकों, क्षुल्तकों, ब्रह्मचार्य तथा
अन्य संसार-पिरक्त मद्दानुभावों के पास भेजी गई
ओर उस लेख के युक्तिपूषक निराकरण के लिये
प्रेरणा की गई । तथा प्रत्येक दिगम्बर जैन
पंचायत से प्रोफेसर साहब के ब्िचारों के विषय में
सम्मति मंगाई गई ।
हषं हे कि दिगम्बर जेन समाज के पन्य संयमी
संवते तथां विद्वानों ने परिस्थिति की गम्भीरताका
अनुभव करके बंबई पंचायत के अनुरोध को स्वी-
कार करके अपनी लेखनी इस विपय पर चलाई ओर
पंचायतों ने अपनी सम्मतियां भेजीं ।
उनमें से श्रीमान पं० मक्खनत्ााल जी शास्त्री का
लेख आद्य अंशके रूपमें पहले प्रकाशित हो चुका दै ।
“यह हितीय अंश आपके समक्ष हे, तृतीय अंश जिस-
में अन्य शेष पूज्य त्यांगियों, विद्वानों के युक्तियुक्त
लेख तथा पंचायतोंकी सम्मतियां संकलित हैं आपके
सामने आने बाला है ।
प्रफेसर साहब के विचार
जनता आश्चय में है कि धवलशाखस््र के संपादक
श्रीमान प्रोफेसर दीरालाल जी ने जैन आष अन्थोँ के
भतिङ्कलं अपनी विचारं धारा किस भकार प्रग्र की
है ९ परन्तु जो मद्ानुभाव प्रोफेसर साहब के विचारों
से परिचित थे उनको इस विषय में ओश्चर्य नहीं
हुआ। ,
प्रोफेसर साहब ने 'जेन इतिहास की पूवं पी-
दिका ओर हमारा अभ्युत्थान?” शीष एक पुस्त-
क लिखी है जिसके अन्तिम भागमें आपने जेनसमा-
ज के विषय में अपने विचार प्रगट किये हैं। उन
विचारोंमें प्रायः वे संघ बाते हैं. जो स्व० बा० अ जुन
लाल जी सेठी आदि ने प्रचार में ल्ञानी चाही थीं
किन्तु आंगम-विरुद्ध होने के कारण जैन समाज ने
उन बातोंका जोरदार आवाज से विरोध किया था ।
जो महानुभाव देखना चाहें वे उक्त पुस्तक के
“समाज-संगठन शीएक अन्तिम प्रकरण को पढ़ें ।
इस प्रकरणमें आपने विधवा त्रिवाह, जातिपांति भंग,
दस्सा बीसा मेद लोप, बर्व्यवस्था लोप चदि व्रातों
का खुला समथ॑न किया हे |
अतः प्रोफेसर साहबने जो कुछ लिखा है वह यों
दी सहसा नदीं लिख डाला किन्तु अन्य सुधारकों के
समान दी उन्दो ने सव छ समभः बूक कर लिखा है
अतएब 'प्रोफेसर साहब जहां जैन साहित्य 'सेबा की
दृष्टि से आदर के पात्र हैं वहां आगम प्रतिकूत्र विचा-
र प्रगट करने के कारण पर्याप्त आलोचना के भी
पात्र है । ।
आशा है आप अपनी इस खरी आलोचना को
घैये गास्भीय के साथ अवलोकन और मनन करेंगे ।
इस पुण्यकाय में निम्नलिखित महानुभाषों की
सहायता श्राप्त हुई हे ।
(१) प्रथम ही श्री १०८ आचाय कुन्थुसागरजी
महाराज के चरणों मे शतशः मस्तक सुकाकर उन्हे
कोटिशः धन्यवाद दै, आप पूज्य श्री ने बंबई दि०
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