विचार और निष्कर्ष | Vichar Aur Nishkarsh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आचीन भारत फो साहित्यिक ইল ७ ए06 4708. मे पूवं जौर परिचम के साहित्य की तुलना करते हए ठीक ही लिखा ह कि- “1116 0116081 ९00800प्8०688 18, 0 6871016, 1 &€06- 781 71076 {066 ध. 6159 75960, 1070 1 ८6 11880, 61১৩ एष 0]016 106408०0, 18 8 फ्ष$8 (1596 0৫ 00106792806 8011- 097৮7, 0101৮ 90108691098 ০ 009 02970681170001786 60681808 89 7911) 90108806256 1000 6৮০750101106 ९0688 &8 0020716- 206 01900597106 18 3010797)9 0010009। 962/071167 8000. 03794 ]0900108/07020, 2 009 0109) 0119 41080199১ €০ 10101 26 0579 67760 ” साहित्य में रस और अछकार को भ्रमुखता मिलने के कारण भारत का साहित्य आदर्शवान्‌ रहा है, जीवन कं प्रति भौतिकं सजगता होने के कारण पदिचम का साहित्य आज भी यथार्थवादी बना हुआ है। हमारा साहित्य भानव-कल्याण, देश-कल्याण, समाज-कल्याण तथा आत्म-कल्याण की भोर -सदैव प्रवृत्त रहा है। खेद है कि हमारे सुखद और गौरवपूर्ण अतीत ने साहित्य की जो दीघे परम्परा चलाई थी वह्‌ प्रसाद, पत, महादेवी, निरा, रवीन्द्र, सुष्रहयन्‌ भारती आदि कतंमान अमर कवियो तक पहुँचकर विनष्ट होती जा री है । इतिहास साक्षी है कि प्राचीन मारत ने कमी भी, किसी युग में, किसी भी अन्य देश के साहित्य का अनुकरण नही किया । फिर आज क्यो ? क्या इससे यह व्यजित नहीं होता कि हमारे आज के साहित्यकारों मे अब कालिदास, वाल्मीकि, भवभूति-जैसे विदवजनीन कवियों की सुृजनात्मक कल्पना-शक्ति नही रही या वह किसी कोने में मुंह छिपाकर, हमारी सक्रीर्ण दृष्टि पर, बिलख रही है ! हमे उसके आँसू पोछने होगे । जब দাহ, হাদন- हावर, मैक्समूलर, इमसंन, टाल्स्टाय, विटमैन-जैसे विदेशी साहित्यकार और विद्वान, जो हमारे देश में कभी नही आये, हमारे देश के भमहान्‌ साहित्य और सस्कृति की अदासा करते नही थकते, तो हम भारतीयों का तो यह कतेंव्य ही है कि हम अपने सुखद और स्वर्िम अतीत के अमूल्य हीरे, भोती और जवाहरातो को सेंभालकर रखें ।




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