पउमचरिउ (पद्मचरित ) | Paumchariu (padamcharit)

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Paumchariu (padamcharit) by देवेन्द्रकुमार जैन - Devendra Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पडमचरिड उपमा गोदावरीके सातं मुखोसे दौ हे! यह दरिणवासीके रए ही सम्भव ই (२ ) कविने माहका कम चैतसे फागुन तक माना है, यड दत्तिणमें ही प्रचलित है । (३) गोदावरीका जो वर्णन कबिने किया है, वह एकं प्रत्यपदशो ही कर सकता है। फिर भी वह कविको कणाटकमे पिद्भसे प्रवासितं मानते ई । क्योकि ७वी सदसे राषकूट कारम बरार भौर জা राजनेतिक भौर सांस्कृतिक सम्बन्ध उत्तरोत्तर यदता गया (४० १॥ राष्ट्रकूटाज्ञ और ठेअर टाइम्स डो° आततेकर ) ! प्रेमीजी भी यही मानते है । परन्तु राहुरजी की सू ओर मी रुम्बी है । “हिन्दी कान्य-धारा में उन्होने बताया है किं स्वयम्भू कन्नौजके थे, भौर राष्ट्रकूट राजा भुवके अमात्य, सामन्त रयडा धनक्नेयके साथ वह दरिण गये । ध्रुवने कन्नीजपर आक्रमण किया था ! पर यद निमूर कल्पना है 1 सेस प्रमाणफे अमावरमे उन्दं उत्तर भारतीय मानना टीकं नही । दक्तिण भारतके इतिहाससे सिद्ध है कि वहाँ के लेखक आरय-भाषाओमं साहित्य रचना करते रहे हैं। अधिकाश संस्कृत-प्राकृत साहित्य दृक्षिण-चार्सी मैन आचार्यो दवारा लिखा गया दै, कविने ससुरके अर्थम (माम, शब्दका प्रयोग किया है. मामाका ससुर होना दक्षिण भारतमें ही सम्भव है, उत्तर भारतमें नहीं। हस यह कह सकते है कि स्वयम्भू पर उत्तर भारत जी अपेत्ता द्तिककी सस्कृतिका असर अधिक है। यदि वह ठेठ कन्नोज के होते तो यह सब इतने जल्दी कैसे सम्भव हो गया | अधिकसे अधिक उन्हें विवभका मान लेने पर भी, इत्तना निश्चित है कि कविके पूचल कई पी्ियो परे कर्नारकमे वस चुके होगे । अपने सम्प्रदाय या गुर परस्पराके विपयमे कवि सर्वथा मौन ई । परन्तु पुष्पदन्तके महापुराणकी दीकामें छिखा है “स्यभू पद्धडी वद्धकर्ता आपली सघीय:”--अत प्रेम्तीजी और ढा० भायाणी उन्हे थापनीय स्थका मानते हे ( जैन साहित्य सौर इतिहास प° २८५ ) 1 प्राकृतं




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