जैन साहित्य में विकार | Jain Sahitya Mein Vikar

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Jain Sahitya Mein Vikar by तिलक विजय - Tilak Vijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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7 आज से २५ हज़ार वर्ष पहिलें जब वर्धमान स्वयं विद्यमान ये तथ ओज के समान उपदेश प्रचार के लिये आवश्यक साधनों का अभाव था। यद्यपि लेखन कला तो उस वक्तं भी अस्तित्व रखती थी, परन्तु उसका -उपयोम विशेषत: व्यवहार विभाग में ही प्रचलितं या! ममुलु, श्रमणोपासक-श्रावकों ओर श्रमणो मे सत्संग की प्रवृत्ति प्रचलित थी। जब वे वर्धमान के पासया अन्य किसी नडे श्रोत्ताकी योग्यता के अनुसार उसके हितकी दो चार जातें विधेय रूप से-(एेसा करो ही यह नहीं परन्तु ऐसा करना चाहिये इस रीति से) प्रदर्शिति .करते ओर श्रोताजन उनहित की बातों को स्वनाम के समान याद कर लेते थे। जिन बातों में अपना विशेष हित समाया हो उन बातों को पत्तो या कागजों पर लिख लेने की अपेक्षा मंत्र के समान हृदय मेँ अंकित कर रखना विशेष उचित है यह समझ कर भी वे उपदेश को न लिखते लिखाते हों यह बात सम्भवित है। श्री वर्धभान के मुख्य शिष्यों ने अपने अनुयायियों को सिखलाने के लिये वर्धमान के उन उपदेशों को सक्षेप में संकलित कर रक्खाथाओरसोभी कण्ठाग्र ही रहता था। जब कभी प्रसंग आता तब श्री बर्धमान ने ऐसा कहा है या श्री वर्धमान के मुख से ऐसा सुना है इस रीति से उन उपदेशों का विवेचन या व्याख्यान किया वा । वे सब उपदेश पालीभाषा के समान उस समय की लोकभाषा-मागधी प्राकृत भाषा में होने के कारण समस्त जनता को समझने मेँ सुगम ओर सुलभ होते थे, एव श्रावक, श्राविका, साधुया साध्वीको शक्ति में अनुसार न्युनाधिक प्रमाण में कण्ठस्थ रहते थे! वर्तमान समय में जिसे हम एकदशांग सूत्र कहते हैं उसके वे मूल उपदेश थे। वे मूल उपदेश और वर्तमान एकादशांग सूत्र, इन दोनों में काल क्रमेण भाषा दृष्टि और अर्थ दृष्टि से कितना परिवर्तन हुआ और वैसा होने के कारणो के सम्बन्ध में मैंने एक खास जुदा निबन्ध लिखा है। उसका कितना एक विशेष उपयोगी विभाग नीचे टिप्पण में देता हूं” जैन दशंन नित्यानित्यवाद का समर्थन करता है, उसकी दृष्टि से वस्तु का मूल तत्त्व कायम रहता है और उस मूल तत्त्व की परिस्थिति के अनुसार अनेक रूप परिवर्तित होते रहते है। यह परिवर्तन व्यवहारिक और उपयोगी भी है, किन्तु आकाश मूर्त्त रूप धारण करे और जड़ चेतन रूप मे परिणत हो ऐसे सर्वथा मिथ्यावाद का जैन दर्शन प्रजल विरोध करता है। इसका यह कारण है कि इस सिद्धान्त में मूल पदार्थ स्वरूप से ही भ्रष्ट हो जाता है। इससे हम यह समझ सकते है कि मूल पदार्थ को कायम रखकर संयोगानुसार उसका परिवर्तन जैन दर्शन को सम्मत है, किन्तु मूल पदार्थ का स्वरूप भ्रंश तो सर्वथा अस्य ओर अनिष्ट है।




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