सामान्य समीक्षा | Samanya Samiksha

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Samanya Samiksha  by प्रोफेसर वासुदेव - Prof. Vasudev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आधुनिक हिन्दी-फविता की दाशेनिक पृष्ठभूमि ११ जैसे, राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, रामतीर्थ के मार्ग प्रशस्त कर चुके थे | तुलसी साहब, (हाथरस, १७६०--१८४२) और संत डेद्राज (आगरा, १७७१- १८५२) एसे ही महापृरूष थे; जिन्होंने अपनी साधना के द्वारा भारतीय चिता-घारा को नई गति दी थी । राजा राममोहन राय और. स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जिन नई बातों का प्रचार किया था, उन्हें अकेले संत डढराज प्रचा- स्ति कर चुके थे । वर्णे-व्यवस्था की अनाक्दयकता, ब्राह्मणेतर जाति की कन्या से विवाह, हिंदु-मुस्लिम-साधनाओं का समान आदर, प्रुषों और स्त्रियों को धर्म के क्षेत्र में समान अधिकार, पर्दा-प्रथा का त्याग, मूर्तिपूजा की व्यथंता, विचार- स्वातंत्य मे आस्था आदि नवीन बातों का प्रचार संत डेढ़राज पहले ही' कर चूके थे । हम कह सकते हैं कि यदि हिंदी-कविता में नई भाव-धारा का.आविर्भाव हुआ तो इसका श्रेय उत्तर भारत के हिंदी-प्रांतों में काम करने वाले नये संतों, समाज- सुधारकों और दाशंनिकों को ही मिलता चाहिए ) बड़े-बड़े लेखकों से यह जानकर खेद होता है कि हिंदी की नवीन काव्य-चेतना में या तो बंगाल के नये साहित्य का अनुकरण हुआ हू या अंग्रेजी की रोमांटिक कविता का अनुवाद | किसी भी देश की कविता अनुकरण और अनुवाद पर जीवित नहीं रह सकती; उसके पीछे कवि की उस आत्मिक चेतना का विस्फोट होता है जो देश, काल और परिस्थिति की ' अ्तिक्रिया में जन्म छेता है । हिंदी में नई कविता और नई विचार-धारा क॑ मूल स्रोत को तत्कालीन परिस्थितियों में ढूँढ़ना होगा । रीतिकालू में विचार-वेतना कौ जो धारा अचानक सूख गई थी, वह भारतेंदु-युग में बन्‌कूछ अवसर पाकर पुनः प्रवाहित होने छंगी। युग-चेतना ही काव्य-वेतना की पृष्ठभूमि बनती है। -मारतेदु युग में 'हिंदी-काव्य की भाव-दिशा बदली, तो इसकी प्रेरक शक्तियों को तूलसी साहब, संत 'डेढराज, छाछा शिवदयारू (१८१८-७८), राय,सालिग्राम साहब (१८२८--१८९८) जसे अनेकानेक संतों और धर्म-सुधारकों मेः खोजना चाहिए । बात-वात में किसी आन्त विरोष का मुखपिक्षी होना ठीक नहीं । ग ^ यह्‌ एक सवंमान्य सत्य है कि दर्शन का सागर लहराने के पहले सुधार की सरिता प्रवाहित होती हैँ । भारत के सभी प्रांतों में, हिंदी-प्रांतों में भी, यही हुआ । ऊपर हमने जिन संतों का नामोल्लेख किय। ह, वं सभी प्रधानतः घर और समाज के सुधारक थे । इनमें संत डेढ़राज का नाम विशेष उल्लेखनीय है--महत्त्व- पूर्ण है। उन दिनों जब सारा उत्तर भारत दासता की अफीम खाकर सोया पड़ा था तब डेढ़राज ने घूम-धूमकर धर्म की नई व्याख्या की, रूढ़िवादी समाज को नया मार्ग दिखलाया , शोषित नारियों के अधिकारों को फिर से दिलाने की चेष्टा की, मूर्ति-पृजा का खंडन किया । डेडराज की नंवीन सांस्कृतिक चेतना में हम स्वामी दयानन्द सरस्वत्ती और राजा रोममोहन राय के प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते है । भारतेन्दु का युग सुधार की तैयारी में र्गा रहा । स्वयं भारतेन्दु ने एक ओर संतों के और समाज-सुधारकों के नये आल्दोलनों का साथ दिया और दूसरी ओर मध्य युग की वैष्णव-घमं कौ दशेन-परम्परा को जीवितं रखने की चेष्टा की !




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