आनन्द प्रवचन (भाग - ९ ) | Anand Pravachan [ Vol - 9]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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© १५ को नहीं जानते ३६६; जब तक अनुभूतियुक्त प्रकाश न हो, प्रकाश के दावेदार म बनो ३६८, पहले स्वयं शास्त्रों के . रहस्य को समझो ३६६ ` , विक्षिप्तचित्त को कहना : विलाप ३७१-३५६ विक्षिप्तचित्त क्या और क्‍यों ? ३७१, विद्यालय में भ्रवेश से पहले लामा की कठोर परीक्षा--दृष्ठान्त ३७३, चित्त की एकाग्रता से अद्भुत चमत्कार ३७५, एकाग्रचित्त से होने वाला संकल्प : सर्वो- परि शक्ति ३७६, दातम की अद्भुत स्मरणशक्ति चित्तको एका- ग्रता से--दृष्ठान्त ३७६, चित्तविक्षिप्त क्यों और उसमें बोध क्यों तहीं टिकता ? ३८०; विक्षिप्तचित्त बदलता रहता है ३८२, चित्त को विक्षिप्त होने से बचाने के उपाय ३८३, पहला उपाय--चित्त की शक्तियों को नष्ट न होने दें ३८३, दूसरा उपाय--शकक्‍्ति का उत्पादन शिथिल न' होने दें ३८४, तीसरा उपाय--चित्त में निहित और संचित शक्तियों को छिपाकर न रखे ३८५, चौथा उपाय--- चित्त को अशुद्ध, और अस्वस्थ न होने देना ३८५, चित्त की उच्छ ख- लता को न रोकने से भी चित्त विक्षिप्त हो जाता है ३५६, चित्त- विक्षिप्त : उपदेश के लिए कुपात्र ३८७, व्यंवहार में भी विद्षिप्त- चित्त को कोई वात नहीं कहता ३े८८। कुशिष्यों को बहुत कहना भी লিলা ३६०-४१३ शिष्य लोलूपता : कुशिष्यों का प्रवेश-द्वार १६०, दूरदर्शी गुरु दारा उम्मीवार कौ परखः` ३६२, गुस्सेवाज पति को झुकना पड़ा-- दृष्टान्त ३६२, अधिक सन्तान और अधिक. शिष्य : अधिक दुःखं ३९५, कुशिष्य : गुर को वदनाम गौर हैरान करने वाले ३६७, गुरु लोभी और शिष्य लालची ३६०८, गुरु तो वन सकता ह, शिष्य नहीं २९०, गुरु के कतंग्य अदा न करने वाले शिष्यलिप्सु ३९९, आ चायं वृद्धवादी गौर सिद्धसेन का दृष्टान्त ४००, सुशिष्य कौन, कुशिष्य . कौन ? ४०२, गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण और अटूठ विश्वास तथा सेवा, विनय आदि सुशिष्य के गुण ४०३, सुशिष्य-कुशिष्य को पहचा- नने की प्रथम सरल विधि ४०४, दूसरी विधि---कठोर परीक्षा द्वारा ४०४, तीसरी विधि--सत्कार्यों या क॒तंव्यों से परखने की ४०८ ग्रुणवान शिष्य की चार विनय प्रतिपत्तियाँ ४०८५, विनयवान शिष्य पचक ने अपने ग्रुरु राजषि शैलक की आत्मजागृति की ४०६ कुशिष्यों को ज्ञान देना.सपं को दृध .पिलाना हैं. ४१०, कुंशिष्य उप- देश के पात्र क्यों नहीं? ४१२४ . - ` 7




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