मन शुद्धि - परम सिद्धि | Man Shuddhi - Param Siddhi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्री राम আহহ मन का दान करने वाले भी मिलेंगे पर काया का और वचन का दान सहज नीं हे। समय का दान विरले ही कर पाते हैं। जब तक व्यक्ति योग नहीं दे तव तक एक, अनेक वन कर उजागर नहीं हो सकता। यदि उसका पलल्‍लवन-सिंचन नहीं हो तो जो संस्था बनी है, उसका अपेक्षित विकास नहीं हो पाता। यह भी आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं को उससे जोड़कर चले। आज स्थिति यह बन गई है कि व्यक्ति सोचता है कि मुझे तो दो वर्ष के लिये अध्यक्ष पद या मंत्री पद मिला है। अध्यक्ष बनकर ज्यादा से ज्यादा मालाएं पहन लूँ। माला पहनने के लिए मंच की आवश्यकता होती है। इसलिए हम आज मंच से नीचे आ गये। मंच पर आ जायें तो धरातल तैयार नहीं होगा, सब-कुछ ऊपर-ऊपर से निकल जायेगा वैसे ही जैसे जव समुद्र म तूफान आता हे तो ऊपर-ऊपर आता हे ओर जाते-जाते नुक्शान टी कर जाता है । वहत कुछ तहस-नठस भी कर डालता है। वेसे ही अध्यक्ष या मंत्री वनकर कोई सोचे कि माला पहन लें, हमारी पूछ होनी चाहिए तो समझ लीजिये कि पूंछ लगी तो वे मनुष्य नहीं रह पायेंगे। पूंछ होती है पशु के। मनुष्यों के पूंछ देखी क्या किसी ने ? पर यदि पूंछ लगा लेते हैं तो मानव नहीं रहेंगे, पशु की श्रेणी में चले जायेंगे। पूछ के पीछे नहीं किन्तु कर्तव्य के पीछे कर्म करें। जैसा गीता में भी कहा गया है- “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन 1 अपना कर्तव्य करता चल, फल की आकांक्षा मत कर। दुनिया तो देखेगी, रंगीन चश्मे से। रंगीन चश्मे से रंगीन ही दिखेगा। वह इधर की भी बन जायेगी और उधर की भी) एक वाल कथा हे -“म्हारो मामो जीते हे। एक जंगल था वहाँ शेर रहता था तो भालू, चीते, सियार आदि दूसरे जानवर भी रहते थे। वैसे तो सियार दब्बू होता हे पर वुद्धि से चतुर ोता टे! ऐसी गोटियाँ फिट करता है कि किसी को पता नहीं पड़ता। उसमें चालाकी होती ढे और चालाकी से तीर फेंकता हि




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