गढ़वाली भाषा और साहित्य | Garwali Bhasha Aur Sahitya

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Garwali Bhasha Aur Sahitya by अच्युतानन्द धिल्डीयान -Achyutanand Dhildiyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) पराथना, मनुष्व जीवन की नीतिः, दरवानसिंहकु विक्टोरिया क्रॉस”, “टिहरी से विदा! आदि सुन्दर कविताएँ हैं। श्रीवारादत्तजी गैरोला वकील श्रीचन्द्रमोहनजी को अँगरेजी के कवि कीद्स और शैली के समकक्ष मानते थे | श्रीआत्मारामजी गैरोला इस युग के गढ़वाली कविता के अच्छे कवि थे। उनकी कविता पद-लालित्य, मधुरता, व्यंग्य तथा देश-प्रेम से सुतजित है। आपकी शैली सरल है एवं भाषा गढ़वालीपन से ओतप्रोत । आपकी रचनाएँ--स्वार्थाष्टक, दरिद्राष्टक, तुलसी, एजेन्सी महिमा-वर्णन आदि हैं | आपके व्यंग्य बहुत ही सुन्दर होते थे | उस युग में और अनेक कवियों ने सराहनीय कार्य किया | श्रीदेवेन्द्रदत्त रतूड़ी, श्रीगिरिजादत्त नेधाणी, श्रीसुरदत्त सकलानी एवं श्री दयानन्द बहुगुणा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इसी समय श्रीबलदेवप्रसाद शर्मा दीन! ने रामी! और 'बाठा गोडाई” नामक सुन्दर कृतियाँ रखीं | वादा गोडाई गीत गढ़वाल के स्त्री-पुरुष प्रत्येक की जिह्ना पर सर्वप्रिय हुआ | इस गीत में गढ़वाली नारी का सुन्दर आदर्श उपस्थित किया गया है | इसी युग में रायबहादुर श्रीतारादत्तजी गैरोला वकील का अपनी भावपूर्ण कविताओं के कारण विशेष और गौरवपूर्ण स्थान है। किसी नवयुवती के हृदय में उठी अपने मैत (मायके) के घरों और गाँव को देखने की अभिलाषा का कितने सुन्दर एवं मार्मिक शब्दों में वर्णन किया गया है ! जिस प्रकार महाकवि कालिदास ने मेघदूत गीतिकाव्य में यक्ष के द्वारा जड मेघ से प्रार्थना करके अपनी प्रियतमा को संदेश भेजने के लिए उसे तैयार किया, ठीक उसी प्रकार श्रीगैरोलाजी ने अपनी कविता में जड पर्वतं श्रौर चीड़ के पेड़ों से अपने भेत की खुद मेः (मायके की याद म) व्यथित युवती विनीत शब्दों में प्रार्थना करती है कि हे कँचे-ऊँचे पर्वतो | कुछ क्षणों के लिए आप नीचे हो जाते, तो मैं अपने पिता के घर को देख सकती | यहाँ अपने भत्ते के साथ पर्वत एवं पेड़ों को नष्ट न करके “जियो और जीने दो? की नीति को अपनाया गया है। श्रीमहन्त योगेन्द्रपुरीजी शात्री का 'फूलकण्डी' नाम से एक कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ था। आपने सुप्त जनता को जगाने के लिए संस्कृत के बार्शिक छन्दों में अनेक कविताएँ लिखीं | आपने अनेक कविताएँ समाज की बुराइयों को सुधारने के लिए लिखी हैं। श्रीचक्रधर बहुगुणाजी की कविताएँ भी 'मोछुंग” नाम से इसी युग में ही प्रसिद्ध हुईं । श्रीबहुगुणा की मोछंग कविता को विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ने बहुत पसन्‍द किया | इस कविता का गुजराती, मराठी और तमिल भाषा में अनुवाद हुआ है| अतः, इसकी लोकप्रियता का अच्छा प्रमाण मिलता है। श्रीतोताकृष्ण गैरोला की 'प्रेमी पथिक' और “तात घनानन्‍्द', श्रीशशिशेखरानन्द सकलानी एवं श्रीमती विन्ध्यवासिनी सकलानी कौ पुष्पाजंलिः नामक पुस्तके प्रकाशित दुई है |




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