शाहआलम | Shahalam

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Shahalam by सुरेन्द्र कान्त - Surendra Kant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नहीं हो सकता--यार बाक़ी, युहंबत वाक़ी !! और सवारी को कूँच का हुक्म दिया! कई अंधेरी काली रातें दिल्‍ली पर गिद्ध के डैनो की छाया की तरह मेंडराती रही | आजकल चाँदनी चोक मे जो गली पररांठे वालान है उसी मे स्थित है एक हवेली ख़ान जमा खाँ। उसी हवेली के विकट एक पक्‍का मकान था जिम्तमे एक कोठरी में दिये के टिप्रटिमाते उजाले मे बैठी रशीदन अपने भाग्य को कोसती आँसू बहा रही थी। पिछले कई दिनों की घटनाओं की स्मृतियाँ उसका दम घोटे डाल रही थी। कूधा दीबी गौहर से ये लोग उसे एक डोलो में डालकर बल्लीमारान ले गये और वहाँ एक हवेली मे मय खाने-पीने के सामान के क्रैंद कर दिया। दो दिन तक कोई ख़बर नही। शायद उन्हे अनुकूल मौका नहीं मित्र पा रहा था। जब-्तब कुछ गश्ती सिपाही इस हवेली को शक़॒ की नजर से घूर जाते थे। आश्विर एक दिन मौक़ा पाकर एक शद्धतत आया । यह उन्ही आदमियों मे से था जिसने उसका आंशिया उजाड़ने मे पहल की थी। मंधेरी रात में बाहर से ताला खुला और उसके मुंह मे कपड़ा दूँस दिया गया और उसे डोली मे सवार कर जमुना के किनारे एक झोपडे मे ले आया गया । यहाँ तो जैसे प्रलय ही आ गयी हो उसके जीवन मे । आज फिर बाहर से ताला खुला और यह था नज्ीरुल हुसैन | 'रशीदन ओ रशीदन--अब भूल जाओ अपने घर को । इसी घर को अपना घर समझो ओर मुझसे निकाह कर लो । 'रशीदन ने ठक से मुँह पर थूका और कहा, 'जा भेड़िये--मेरे वाल्देन के हत्यारे--मर जाऊँगी लेकिन **/ अइ हद, इसी अदा परतो मरते है हम, मेरी जाब आज नही तो कल ती तुम्हे मेरा ही हमबिस्तर होना पड़ेगा ।/ कहते हुए उसने उसके कपोलो को अपने पंजे से सहला दिया । रशीदन विफर पड़ी, एक, दो-तीन तड़ावड़ तमाचे जमा दिये नज्जीर के गालो पर । नज्जीर कुटिलता से मुस्कराया और उसे अक में भरने को वाँहे फंलाता आग्रे बढ़ा--रशीदन पीछे और पीछे शाहआलम | 17




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