जैन तत्त्वज्ञान-मीमांसा | Jain Tattvgyan-Mimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` तिसिदं बुभुक्खिदं वा दृहिदं दट्ठूण जो हु दुहिदमणों । पडिवज्जदि त॑ किवया तस्‍्सेसा होदि अणुकंपा ॥ कोधो व जदा माणो माथा लोभो व चित्तमासेज्ज । जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य त॑ बुधा वेति ॥* अब इन्ही कुन्दकुन्दके समयसारकों लीजिये । उसमें पुष्य और पापको लेकर एक स्वतंत्र ही अधिकार है, जिसका नाम 'पुण्यपापाधिकार” है । इसमे कर्मके दो भेद करके कहां गया है कि श्ुभकर्म सुक्षी (पुण्य) है और अशुभकर्म कुशील है--पाप है, एेसा जगत्‌ समक्षता है । परन्तु विचारनेकी भात है कि शुभकमं भी अशुमकर्मकी तरह जीवको संसारमें प्रवेश कराता है तब उसे 'सुशील' कैसे माता जाय ? अर्थात्‌ दोनों हो पुदूगलके परिणाम होनेसे लथा संसारके कारण होनेसे उनमे कोई अन्तर नहीं है । देखो, जैसे लोहेकी बेड़ी पुरुषकों बांधघती है उसी तरह सोनेको बेड़ी भी पुरुषको बाँधती है। इसी प्रकार शुभ परिणामोंसे किया गया शुभकर्म और अशुभ परिणामोंसे किया गया अश्युभ कर्म दोनों जीवको बाधते ह । अतः उनमें मेद नही है । जसे कोई पुरुष निन्दित स्वभाववाले (दृश्रित्र) व्यक्तिको जानकर उसके साथ न उठता-बैठता है और न उसमे मैत्री करता है! उसी तरह ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) जीव करमप्रकृति्ोके शीलस्वभावको कुत्सित (बुरा) जानकर उन्हें छोड़ देते है और उनके साथ संसर्ग नही करते । केवल अपने ज्ञायक स्वभावमें लोन रहते हैं । राग चाह प्रस्त हो, चाहे अप्रशस्त, दोनोसे ही जोव कमंको भांधता है तथा दोनों प्रकारके रागोंसे रहित ही जीव उस कर्मसे छुटकारा पाता है । इतना ही जिन भगवानके उपदेशका सार है, इसलिए न शुभकर्म मे रक्त होओ और न अशुभकर्ममे । यथार्थमे पुण्यकी वे ही इच्छा करते हैं जो अतत्मस्वहूपके अनुभवसे च्युत हैं और केवछ अशुभकर्मको अज्ञानतासे बन्धका कारण मानते है तथा ब्रत, नियमादि शुभकर्मंको बन्धका कारण न जानकर उसे मोक्षका कारण समन्ते है । दस सन्दर्भे इस प्रन्यके उक्त अधिकारकौ निम्न गायाएँ भी द्रष्टव्य है-- कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणहु सुसील। कह तं होदि धुसीलं जं संसार पवेसेदि ॥१४५॥ सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह्‌ पूरितं । बंधदि एवं जीवं सुहमधुहं वा कदं कम्मं ॥१४६॥ जह णाम को वि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियापित्ता । चज्जेदि तेण समयं संसग्गं रायकेरणं च ॥१४८॥ एमेव कम्मपयडीसीलसहावं च कच्छिदं णां। वज्जेति परिहरति य तस्संस्गं सहावरया ॥१४९॥ रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जोवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०॥ वद-णियमाणि धरता सीलाणि तहा तवं च कु्व॑ता । परमट्ल्बाहिरा जे णिष्वाणं ते ण विर्दति ।॥१५३॥ परमट्‌ ठबाहिरा जे अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति। संसारगमणहेदुं वि লীনজইর্ত আজাতালা 111৭8 १. पंचत्वियसंगह, गा० १३५, १३६, १२७, १३८ | २. समयसार, पुण्यवापाधिकार । क ५ [




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