श्री प्रवचनसार | Shree Pravachansaar

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Shree Pravachansaar  by हिमतलाल जेठालाल शाह - Himatlal Jethalal Shah

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about हिंमतलाल जेठालाल शाह - Himmatalal Jethalal Shah

Add Infomation AboutHimmatalal Jethalal Shah

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
श सुखकी रुचि तथा श्रद्धा कराई है, ओर भंतिम गाथाओंमें मोह-राग-द्वेषको निर्मल करनेका जिनोक्त पथार्थ उपाय संक्षेपमें बताया है। द्वितीय श्रुतस्कंघका नाम शेयतत्व-प्रशापन है। भनादिकालसे परिभ्रमण करता हुआ जीव सब कुछ कर चुका है, किन्तु उसने स्व-परका मेद विज्ञान कमी नहीं किया । उसे कभी ऐसी सानुभव श्रद्धा नहीं हुई कि 'बंध मागमे तथा मोक्षमागंमें जीव अकेला हो कर्ता, कमे, करा और कमंफल बनता है, उसका परके साथ कमी भी कुछ भी संबंध नहीं है ।' हसलिये हजारों मिथ्या उपाय करने पर भी वह दुःख मुक्त नहीं होता । इस श्रुतस्कंघमें आचायेदेवने दुःखकी जड़ छेदनिका साधन-मेदविज्ञान-सममाया है । 'जगतका प्रत्येक सत्‌ अर्थात्‌ प्रत्येक द्भ्य उत्पाद-व्यय-प्रौव्यके भ्रतिरिक्त या ग्रुण-पर्याय समूहके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। सत्‌ कहो, द्रव्य कहो, उत्पाद व्यय ध्रौव्य कहो या गशुरापर्यायपिण्ड कहो, -यह सब एक ही हैं 'पह'॑ जिकालज जिनेन्द्रभगवानके द्वारा साक्षात्‌ हृष्ट वस्तुस्वरूपका मूलभूत सिद्धान्त है। वीतरागविज्ञानका यह मूलभूत सिद्धांत प्रारंभकी बहुतसी गाथाशोंमें श्रत्यधिक सुन्दर रीतिसे,-किसो लोकोत्तर वेज्ञानिक के ढंगसे समझाया गया है । उसमें, द्रव्यसामान्यका स्वरूप जिस भ्रलौोकिक शैलीसे सिद्ध किया है उसका ध्यान पाठकको यह्‌ भाग स्वयं ही सममपूर्वेक पटे बिना माना अद्क्य है । वास्तवमें प्रवचनतसारम वशित यह द्रग्यस्तामान्य निरूपण भरत्यन्त अबाध्य भ्रौरं परम प्रतीतिकर है । इसप्रकार द्रव्यसामान्यकी शञानरूपी सुहढ़ भूमिका रचकर, द्रव्य विशेषका असाधारण वर्णन, प्राणादिसे जीवकी भिन्नता, जोव देहादिका-कर्त्ता कारयिता, भनुमोदक नहीं है-यह वास्त- विकृता, जीवको पुदुगलपिण्डका अकठृत्व, निमग्मयवंधका स्वरूप, शुद्धात्माको उपलब्धिका फल, एकाग्न संचेतनलक्षरा ध्यान इत्यादि अनेक विषय अति स्पष्टतलया समभाये गये हैं। इन सबमें हव- परका भेद विज्ञान ही स्पष्ट तरता दिखाई दे रहा है | सम्पूर्णा अधिकारमें वीतराग प्रणीत द्रव्यानु- थोगका सस्व खूब घास धासि कर ( ठंस ठ्स कर ) मरा है, जिनशासनके मौलिक सिद्धान्तोको प्रबाध्यरूपसे सिद्ध किया है। यह अधिकार जिनशासनके स्तंभ समान है। इसका गहराईसे अभ्यास करनेवाले मध्यस्थ सुपात्र जीवको ऐसो प्रतोति हुये विना नहीं रहती कि 'जेन दर्शन हो वस्तुदशन रै ।' विषयका प्रतिपादन इतना घोढ़, श्रगाध गहराई युक्त, ममंस्पर्शी ओर चमत्कृतिमय है कि वह मुमुक्षुके उपयोगको तीक्ष्ण बनाकर श्र तरत्नाकरकी गंभीर गहराईमें ले जाता है। किसी उच्चकोटिके मुप्ुश्ुकी निजस्वभावरत्नकी प्राप्ति कराता है, श्ौर यदि कोई सामान्‍य मुमुक्षु वहां तक न पहुँच सके तो उसके हृदयमें भी इतनी महिमा तो अवश्य ही घर कर लेती है कि “श्रुतरत्नाकर अदभुत ओर अपार है ।' ग्रंथकार श्री कुन्दकुन्दाचायंदेव और टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचायंदेवके हृदयसे प्रवाहित भ्रुतगंगाने ती्थंकरके गौर श्रुतकेवलियोंके विरहकों भुला दिया है। तीसरे श्रुतस्कंधका नाम चरणानुयोगसूचक चूलिका है। शुमोपयोगी मुनिको ध्रंतरंग दशाके प्रनुरूप किस प्रकारका शुभोपयोग बतंता है श्रोर साथ ही साथ सहजतया बाहरकी कैसी क्रियायें स्वयं वरतंती होतो हैं, यह इसमें जिनेन्द्र कथनानुसार समझाया यया है दीक्षा ग्रहण करनेकी




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now