अहिंसा प्रदीप | Ahinsaa Pradeep

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Ahinsaa Pradeep by धीरेन्द्रकुमारजी शास्त्री - Dhirendrakumarji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १० | “यदि प्रावा ताये तरति तरणियदय दयते । प्रतीच्यांसपाविर्यदिमजति शेज्यं कथमपि ||” “यदिक्ष्मापीटं स्वादुपरिसकलस्यापि जगतः । प्रसूतेसत्वानां तदपि न वधः कापि न सुतम्‌ ।।१॥। यद्याप जलमे पत्थर तैरता नहीं है तो मी वह किसी प्रकार বইও. सूयं यदि पश्चिम दिशामें दोवे, चाहे ्चम्मि यदि शीतल दो जावे इसी प्रकार कदाचित्‌ पृथ्वी सकल जगतके उपर हौ जावे तो जीवोंका बध कदापि सुखको देनेवाला नहं हो सकता । ओर मी कहा है- जिस. प्रकार कसौटी पर धिसना, ढेदना, काटना, तपाना, ताडना इलयादिस' सुबणेकी परीन्ता की जाती है, वैसे ही विद्वान्‌ लोग शील, संयम, तपः दयादि गुणोंसे धर्मकी परीक्षा करते हैं । महामारत शान्ति पवेके प्रथम पादमें मोष्मपितामह्‌ युघ्रि्ठिरस कहते है--हे युधिष्ठिर । जो फल प्राणियों को दया देती दै वह चारों वेद॒ भी नहीं देते, श्रौर न समस्त यज्ञ ही, तमाम तीर्थोका स्नान, वंदन भी वह्‌ फल नहीं दे सकता। और भी कहा हे--दुगेन्धयुक्त नालीमें कीड़ेको ओर स्वगेमें इन्द्रको जोबनकी आकांक्षा तथा मृत्युका मय दोनोंको समान है। बड़ेस बड़े दानका भी फल कुछ कालमें, क्षीण हे! जाता है। किन्तु मयभोतको अभय दानका फल कमो. क्षीण नहीं हाता । एक हजार गार्याको ब्राह्मणांको दान देनेका वह फल नहीं जो एक जोवको जीवनदान देनेका दै । इष्ट-वस्तुका दान, . बड़ बड़े तपोंका तपना और तीथोंकी सेवा करना ये सब अभयदान: के सोलहवें भागके समान भी नहों है। खरणो, गौ, पृथ्वी आदिके..




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