जीवन सखा | Jeevan Sakha

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Jeevan Sakha by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ক্স পাস্তা কিল পাস পাশ १० | किया जाता है तो शरीर की पाचन-प्रणाली उसे उपयंक्त घुलनशील खाद्य-तत्वों में परिणत करने में असमथ हो जाती है ओर धीरे-धीरे अजीण की शिकायत पैदा हो जाती है | अजीण समस्त कीयण्‌ जन्य रोगों का मूल कारण बनवा है । उदाहरण के लिए में यहां पर हैजे के सम्बन्ध में भी अपने निजी अ्रनुभवों को देना चाहता हूँ जो कि मध्य प्रान्त में इस संक्रामक रोग के सम्बन्ध में मुझे प्राप्त हुए | लड़ाई के दिनों में गरीब लोग पृरा-पूरा राशन नहीं प्राम कर सकते थे ओर वे तुबर, चना, अरहर, मोट (इन सब में संगठित रूप से प्रोटीन होता है) खाकर ही गुजर करते थे | श्रतः उन लोगों के श्रजीण की शिकायत पैदा हो गयी जिसके परिणाम स्वरूप पिछुले वर्ष १६४५ में उस प्रान्त में हैजे का प्रकोप होने पर ७०,००० व्यक्ति काल-कवलित हुए। एलोपैथी-प्रणाली भी यह स्वीकार करती हे कि हेजे के कोणाणश्रा की वृद्धि तथा विस्तार के लिए श्रजीण उपयुक्त आधार प्रस्तुत करता है | भोजन के अवशिष्ट अंशों का सड़ाव हम जो भोजन ग्रहण करते हैं उसके अधिकांश भाग की बड़ी ग्रॉत ((.0101) से साफ हो जाना चाहिए । लेकिन जब अधिक परिमाण में मोजन किया जाता है तो बड़ी आंत की मल-विसजन शक्ति शिथिल पड़ जाती है ओर इस प्रकार भोजन का अवशिष्ट अंश बड़ी अरति में जमा होने लगता द श्रौर श्रन्ततोगत्वा यह मल को बाहर ठेलने में श्रसमथ हो जावा है। अनुचित आहार तथा अ्रपर्याम मल- विसजन के फलस्वरूप पच्र न सकने वाला स्टाच तथा प्रोटीन से भय हुए भाजन का अवशिष्ट अंश रुका पढ़ा रहता है जो बाद भं सड़ने लगता है| इसके अनन्तर इस संड़ाव के बीच उद्यन्न होने वाले गंस तथा विभिन्‍न प्रकार के अम्ली का बड़ी गत शोपण कर लेती है और यह विषाक्त पदाथ तन्दचुओं में एकत्र हा जाता है| अन्त में ये तन्तु निष्क्रिय हा जाते ह और 013 ४०६वाही कोटाण ओ का संक्रमण होने को सम्भावना हो जाती है | रोग संक्रमण का सिद्धान्त श्र तक डाक्टर प्रणाली का यह्‌ विश्वास है तथा वह दूसरा का भी यह विश्वास दिलाना चाहती है कि ज़िस प्रकार किसी दुबल राष्ट्र पर कोई शक्तिशाली राष्ट्र जीवन सखो পাত শীত ~ ~ ~ ~ ----~-~- ~ -- . - ^~ न= ~ -- [जनवरी १६४४६ ~^ - পা न 4 ला ५ ० भ = কপি ঠা পানর ~~~. = শপ न नण = ७ न ० २० जछ, आक्रमण कर देता है उसी प्रकार शरीर-प्रणाली की रोग प्रतिरोधक शक्ति क्ती पड़ जने पर्‌ तथा कथित रोग- कारक कीयाण उस पर आक्रमण कर देते हैं। और इस आधार पर डाक्टर लोग कुछ रसायनों ((.11८011८419) का आविष्कार करके इन कीठाण आओ को नष्ट कर देने का प्रय कर रहे हैं । लेकिन उनका यह विश्वास यह कहां तक सत्य है, यह विचारणीय है । हमे यह जात हो चका है कि ये कीटाण ( 1२२८८1४ )वायु-मंडल में सबंत्र विद्यमान हैं। काई भी स्थल, जहां पर वाय का समावेश होता हो, इन कीशण ओं से रहित नहीं है। यह भी स्वयं सिद्ध हे कि इस भूतल के समस्त प्राणी इस विश्व के अस्तित्व को शांति पृवक बनाए रखने के' लिए हैं। कीटाण॒ओं की बनावट सम्बन्धी विज्ञान से हमे यह भीज्ञात हुआ हे कि बिना किसी विशिष्ट तापमान, नमी ओर उपयक्त आह्यार के इन कीट- णुआ की बृद्धि असम्मव है । इस लेग्ब में पहले यह भी बताया जा चुका है कि ये तीनों आवश्यक वस्तुए शरीर- प्रणाली में विभिन्न कारणों से उलन्न होती हैं। इसके अलावा आधुनिक डाक्टर चिकित्सा विज्ञान स्वयं कहता हैं कि रोग निवारण (11001111 )-शक्ति के श्रभावकं ही कारण रोग के कीठाणुश्रों का संक्रमण (17८टाणा) होता है। यह स्वतः रोग संक्रण का सिद्धान्त ही है জী ग्राज सार संसार का श्रातक्रित किए हुए है, जिसके फलस्वरूप बड़ो से बड़ी बेवक्रफियाँ भी हो रही हैं। संसार में भयानक से भयानक निष्ट श्रथवा आपदाए भी आधुनिक विज्ञान की घातक मूलों के ही परिणाम हैं | संक्षेप में हम यह कह सकते हें कि सम्पूर्ण जड़ जगत्‌ जीवित प्राणियों ক্কা উক্ষবন্বনা ই। অলীহত্ততনা (11011600809) ओर स्वतः रोग भी शरीर में असाधारण तापमान के फलस्रूप व्रिजातीयद्रभ्याक्रा ही उद्रेक है| खीर का उठना शरीर मे सूम जीवाणुश्रा (1161५९5) शरोर सिली (12011) की बनावट पर निर्भर करता है, जो कि सब था स्रभाधिक काय है । हस जद जगत्‌ करो, जिसका अनुभव हम अपनी शानेन्द्रियां के द्वारा करते हैं, भ्रम मात्र समझता चाहिए और इससे उदासीन हो जाना चाहिए, किन्तु डाक्टरी




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