भारतीय दर्शन का इतिहास भाग 4 | Bharatiya Darshan Ka Itihas Bhag 4

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ ] [ भारतीय दर्शन का इतिहास किये जा सकते हैं, तथापि, यह तथ्य कि उनके एक विशेष कर्म-कांडीय पद्धति के प्रनुसार परिचालन द्वारा अनुष्ठानकर्त्ता के सुख की उत्पत्ति होगी, वैदिक विधि-निषेव द्वारा ही ज्ञात किया जा सकता है और केवल इस ज्ञान के लिये ही “धर्म” वेदों पर निर्मेर करता है।* अपने शत्रु की हिसा करने से एक व्यक्ति को तात्कालिक सुख प्राप्त हो सकता है, लेकिन वैदिक आदेशों द्वारा वर्जित होने के कारण उससे भविष्य में अनिवायंत: दुःख उत्पन्न होगा । (किन्तु यज्ञानुष्ठान में पशु जीवन की हिंसा से श्रधर्म उत्यच्च नही होता, श्रतः उसे “धर्म'' के अन्तर्गत समाविष्ट मानना पड़ेगा ) । दूसरी ओर ऐसे कार्य हैं जो अ्रपने शत्रुओं की हिसा करने के लिए किये जाते हैं तथा वेद जिनका आदेश नहीं देते हैं, किन्तु ऐसे अ्रशुमहेतुओं से प्रेरित व्यक्तियों के लिये जिनके अ्रनुष्ठान की विधियां वेद मे वशित की गई हैं, केवल ये कार्य ही “ক্স” कहलाते हैं। इस प्रकार सभी तरह की जीव-हिंसा “अधर्म” नहीं मानी जाती. अ्रपितु वेदों द्वारा वजित हिंसा ही “अधर्म” कहलाती है : वेदों द्वारा जिस हिंसा का श्रादेश दिया गया है वह “अधर्म” नहीं बल्कि “घर्म” मानी जानी चाहिये। स्वरूपत: द्रव्यों, कर्मों अथवा गुणों में कुछ शक्तियाँ सच्चिहित होती हैं जो उन्हें भ्रधर्ममय या धर्ममय बनाती हैं, लेकिन कौन से द्रव्य आदि अधरमंमय हैं और कौनसे धर्ममय यह्‌ श्रूत्रियों के झादेशों से ही ज्ञात किया जा सकता है।* इसप्रकार “धमे श्रौर “श्रधर्म” वस्तुओं, क्रियाओों आदि के वस्तुगत लक्षण हँ जिनका स्वरूप केवल श्रुति द्वारा ही प्रकट होता है। ऊपर हम देख ही चुके हैं कि प्रभाकर ने “धर्म” का एक सर्वथा भिन्न श्र दिया था। उनके अनुसार “धर्म” वैदिक कर्मकाण्डों के अनुष्ठान का वह श्रनुभवातीत फल धर्मः प्रीतिनिमित्तं स्यात्‌ तदा श्येने5पि धर्मता यदा त्वप्रीति-हैतुयः साक्षादयवहितोऽपि वा सोऽधर्मश्चोदनातः स्यात्तदा श्येनेऽप्यधरममता । -इलोकवात्तिक, सूत्र २ इलोक २७०-२७३ । + द्रव्य~क्रिया-गुणादीनां धमंत्वं स्थापयिष्यते तेषामषन्द्रियकत्वेऽपि न ताद्र प्येण धमेता श्रेयः साधनता दयषां नित्यं वेदात्‌ प्रतीयते ताद्व प्येण च धमेत्वं ठस्मानूनेन्द्रिय-गोचरः । ४ --'“इलोक-वात्तिक,' सूत्र २, १३, १४। धमधिर्मधिभितनित्यं मृग्यौ विधि-निषेधकौ क्वचिदस्या निषिद्धत्वाच्छक्तिः शस्त्रेण नोधिता-* विद्यमाना हि कथ्यन्ते शक्तयो द्रन्यकमंणाम्‌ तदेव चेदं कर्मेति हास्त्रमे वानुधावता । कफ -वही, २४६९, २५१।




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