द्विवेदी युग का हिंदी काव्य | Dwivedi Yug Ka Hindi Kabya

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Dwivedi Yug Ka Hindi Kabya by रामसकल राय शर्मा -Ramsakal Ray Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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47 नौनाप है एन गम दे काल-निणशंय हर सरस्वती श्रुत्िमहती न हीयताम! कालिदास के इस भारत-वावय का उद्घोष करती हुई 'सरसवती' जनवरी सन्‌ १९०० ई० में बड़े संकल्प के साथ जतता के सामने श्रकट हुई । उस थम अंक में बं० महावीर प्रसाद द्विवेदी की दो रचनाएं क्रमश: 'नैपध चरित चर्चा और सुदर्शन' तवा 'द्रौपदी वचत बाणावली' प्रकाशित हुई । इन दोतों रचनाओं से द्विवेदी जो की लेखनों की शक्ति एवं उनके व्यक्तित्व की गरिमा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । १६०० ई० के सरस्वती के जून अंक में द्विवेदी जी ने 'हे कविते' शीषंक से तत्कालीन तुकबन्दियों, समस्यापुर्तियों एवं नीरस पदावलियों के विरुद्ध यह अभिव्यक्ति की -- सुरम्य रूपे रस-राशि-रंजिते ! विचित्र वर्णाभरणे कहां गई ? मगलौकिकानस्द विधायिनी महा कबीन्ट्र-कास्ते ! कबिते ! अहों कहां ?* आदि | ब्रजभाषा की टीपिटाई शैली से ऊबकर टिवेदीजी खड़ीबोली को गथे की भांति पद्य में भी पूर्णतः स्थापित करना चाहते थे । इसके लिए उनके हृदय में एक अदम्य लालसा आौर बेचैनी थी, जिसको उनकी उपयुक्त काव्य की निम्नलिखित पंक्तियों द्वारा आंका जा सकता है ! *मभी मिलेगा ब्रज मण्डछान्त का, सुभुक्त भाषामय वस्त्र एक ही | शरीर-संगी करके उसे सदा, विराग होगा! लुझकों अवद्य ही । इसीलिए हे भव भूति-भाविते ! अभी यहां है कविते ! न शा, ते आ।' इतना ही नहीं, उसी वर्ष जुलाई अंक में उन्होंने “कवि कर्तव्य' शीर्षक निधन के माध्यम से बह शखनाद किया, जिसने कचेयों के शानस में एक हुलचल मचा दी । नई चेतना पैदा कर दी | यह सुयोंग भी कितना अनूठा था कि ठीक दो व्षं बाद सनुन १९०३ ई०में ही ट्रिंवेदी भी १. कालिदास सरस्क्ती माग १ मक १ जनवरों १९०० ई० पृष्ठ हू




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