प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन | Prameyekamalatranda Prishilan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11.73 MB
कुल पष्ठ :
339
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रे प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
वस्तु को विभिन्न ऋषियों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से देखा और तदनुसार
ही उसका प्रतिपादन किया । अत: यदि हम दर्शन शब्द के अर्थ को
भावनात्मक साक्षात्कार के रूप में ग्रहण करें तो उपर्युक्त प्रश्न का समाधान
हो सकता है ।
दर्शन का प्रयोजन--
समस्त भारतीय दर्शनों का प्रयोजन इस संसार के समस्त दु:खों से
छुटकारा पाना अर्थात् मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करना है । इस संसार के सभी
प्राणी आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक--इन तीन प्रकार के
दु:खों से पीड़ित हैं । अत: इन दु:खों से निवृत्ति का उपाय बतलाना
दर्शनशास्त्र का प्रधान लक्ष्य है । इसलिए दर्शनशास्त्र दुःख, दुःख के
कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन करता है । जिस प्रकार
चिकित्साशाख्र में रोग, रोगनिदान, आरोग्य और औषधि--इन चार तत्त्वों
का प्रतिपादन आवश्यक होता है, उसी प्रकार दर्शनशाख्र में भी दु:ख, दु:ख
के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन करना आवश्यक है ।
न्याय की परिभाषा--
जिस उपाय के द्वारा वस्तुतत््व का ज्ञान किया जाता है उसे न्याय
कहते है । तत्त्तार्थसूत्र के ' प्रमाणनयैरधिगम: ' ( १/६ ) इस सूत्र में
जैनन्याय के बीज विद्यमान हैं । हम जीवादि तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और
सय के द्वारा करते हैं । इसीलिए न्यायदीपिका में ' प्रमाणनयात्मको न्याय: '
इस वाक्य के द्वारा न्याय को प्रमाण और नयरूप कहा गया है । न्यायदर्शन
में ' प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय: ' ( न्या० सू० १/१/१ ) इस सूत्र के द्वारा यह
बतलाया गया है कि प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा करना न्याय कहलाता
है | प्रत्येक दर्शन ने एक, दो, तीन आदि प्रमाणों को माना है और अपने-
अपने मतानुसार उन प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा की है । किसी विषय
में विरुद्ध नाना युक्तियों की प्रबलता और दुर्बलता का निश्चय करने के लिए
जो विचार किया जाता है वह परीक्षा कहलाता है । आचार्य उमास्वामी ने
सम्यग्ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल--इन पाँच भेदों
को बतलाकर ' तत्प्रमाणे' ( त० सू० १/११ ) इस सूत्र के द्वारा सम्यग्ज्ञान
में प्रमाणता का उल्लेख किया है । तदनन्तर आचार्य समन्तभद्र से जैनन्णय
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