प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन | Prameyekamalatranda Prishilan

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Prameyekamalatranda Prishilan by उदयचन्द्र जैन - Udaychnadra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रे प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन वस्तु को विभिन्न ऋषियों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से देखा और तदनुसार ही उसका प्रतिपादन किया । अत: यदि हम दर्शन शब्द के अर्थ को भावनात्मक साक्षात्कार के रूप में ग्रहण करें तो उपर्युक्त प्रश्न का समाधान हो सकता है । दर्शन का प्रयोजन-- समस्त भारतीय दर्शनों का प्रयोजन इस संसार के समस्त दु:खों से छुटकारा पाना अर्थात्‌ मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करना है । इस संसार के सभी प्राणी आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक--इन तीन प्रकार के दु:खों से पीड़ित हैं । अत: इन दु:खों से निवृत्ति का उपाय बतलाना दर्शनशास्त्र का प्रधान लक्ष्य है । इसलिए दर्शनशास्त्र दुःख, दुःख के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन करता है । जिस प्रकार चिकित्साशाख्र में रोग, रोगनिदान, आरोग्य और औषधि--इन चार तत्त्वों का प्रतिपादन आवश्यक होता है, उसी प्रकार दर्शनशाख्र में भी दु:ख, दु:ख के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन करना आवश्यक है । न्याय की परिभाषा-- जिस उपाय के द्वारा वस्तुतत््व का ज्ञान किया जाता है उसे न्याय कहते है । तत्त्तार्थसूत्र के ' प्रमाणनयैरधिगम: ' ( १/६ ) इस सूत्र में जैनन्याय के बीज विद्यमान हैं । हम जीवादि तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और सय के द्वारा करते हैं । इसीलिए न्यायदीपिका में ' प्रमाणनयात्मको न्याय: ' इस वाक्य के द्वारा न्याय को प्रमाण और नयरूप कहा गया है । न्यायदर्शन में ' प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय: ' ( न्या० सू० १/१/१ ) इस सूत्र के द्वारा यह बतलाया गया है कि प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा करना न्याय कहलाता है | प्रत्येक दर्शन ने एक, दो, तीन आदि प्रमाणों को माना है और अपने- अपने मतानुसार उन प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा की है । किसी विषय में विरुद्ध नाना युक्तियों की प्रबलता और दुर्बलता का निश्चय करने के लिए जो विचार किया जाता है वह परीक्षा कहलाता है । आचार्य उमास्वामी ने सम्यग्ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल--इन पाँच भेदों को बतलाकर ' तत्प्रमाणे' ( त० सू० १/११ ) इस सूत्र के द्वारा सम्यग्ज्ञान में प्रमाणता का उल्लेख किया है । तदनन्तर आचार्य समन्तभद्र से जैनन्णय




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