जैन लक्षणावली | Jain Lakshanavali
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
552
श्रेणी :
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No Information available about पं. बालचंद्र सिद्धान्त शास्त्री - Pt. Balchandra Siddhant-Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना डे
इस प्रन्यि का भेदन भ्रपुबंकरण परिणामों के द्वारा होता है । यथाप्रवूत्तकरण जीव के भ्नादि काल से
प्रबूत्त रहता है । जिस प्रकार नदी मे पड़े हुए पत्थरों मे से कोई घिसते-घिसते स्वयमेव गोल हो जाता
है उसी प्रकार भ्नादि से प्रवृत्त इस करण मे घर्षण-घूणंन के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों की स्थिति में
केवल एक कोड़ाकोड़ि को छोड़ दोष समस्त कोडाकोडिया क्षय को प्राप्त हो जाती है । पइचात् शेष रही
उस एक कोड़ाकोडि मात्र स्थिति मे भी जब पल्योपम का झ्सख्यातवा भाग और भी क्षीण हो जाता है
तब तक पूर्वोक्त ग्रन्थि श्रभिन्नपुर्व ही रहती है। उसका भदन भ्रपुवंकरण परिणाम के द्वारा होता है ।
भनन्तर भ्रिवृत्तिकरण के भन्त में जीव को मोक्षपद के कारणभूत उस सम्यक्त्व का लाभ होता है ।
इस प्रत्थि का प्रसंग बिदेषा. भाष्य (११८८-१२९१४५) व झन्य मौ दवे, ग्रन्थों मे उपलब्ध होता है । पर
वहं किसी दि. प्रन्थमे मृं दृष्टिगोचर नही हृभ्रा।
तस्वा्थंवात्तिक (६, १, १३) मे यथाप्रवृत्त के समाना्थेक श्रथाप्रवृत्त' का निदेश करते हुए कहा
यया है कि जीव कर्मों को श्रन्तःकोडाकोडि प्रमाण स्थित्तिसे युक्त करकं कानादिलन्धिपूवेक भ्रथाप्रवृत्त
करण के प्रथम समयमे प्रविष्ट होताहै। यह करण चूकि पूर्व मे उस प्रकार से कभी भी प्रवूत्त नही
हुभा, ध्रत: उसकी “प्रथाप्रवत्त' यह साथंक संज्ञा है ।
दि. ग्रन्थो मे 'षट्खण्डागम' यह् एक प्राचीनतम प्रन्थ है। उसके प्रथम खण्डमूत जीवस्यान को
नौ चूलिकाप्रो मे प्राठ्वी चूलिका के द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्तिकी प्ररूपणाकी गईहै (देखिए पु. ६,
पृ. २०३ से २६७) । उसके भ्रनुसार पचेन्द्रिय, सज्लौ, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक सवंविश्ुद्ध जीव जन करों
को शेष स्थिति कोक्षीण करक उसे सख्यात हजार सागरोपमोसे हीन प्रन्तःकोड{कोडि प्रमाण कर
देता ह तव वह प्रयमं सम्यक्त्व कं उत्पादनमे समथंहोताटै (सूत्र १, ६-८, ३-५) । सर्वायेमिद्धि
(२-३) भ्रौर तत्त्वां वाततिक (२,३,२) मे प्रापः उक्त षट्खण्डागमके सूत्रोका शब्दशः भ्ननुसरण
किया गया है । जेसा कि पूर्व में निर्देश किया गया है त. वा, (€, १, १३) मे सुचित 'कालादिलब्धि
की विशेष प्ररूपणा यहां की जा चुकी है ।
उस समय उसके क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य ग्रौर करणये पाच लब्विया होती हैं ।
इनमे प्रथम चार लब्धिया तो साघारण है --वे भव्य के समान भ्रभव्यकमभीहो सकती है, किन्तु भ्रन्तिम
करणलब्धि सम्यक्त्व के उन्मुख हुए भव्य जोब के ही होती है । इस करणलब्धि में क्रम से ग्रघ 'प्रबुत्त-
करण, धझपु्वकरण शोर श्रनिवृत्तिकरण क्न तीन करणो को करते हुए जीव के भ्रनिवृत्तिकरण के भ्रन्तिम
समय में प्रथम सम्यक््तव का लाभ होता है (इन लब्धियो का स्वरूप धबला पु. ६, पृ. २०४-३० पर
देखा जा सकता दै) )
छंद--श्राचाय कुन्दकुन्द ने छेद कं अ्रभिप्राय को प्रगट करते हुए प्रवचनसार (३-१६) मे कहा
है कि कयन, भ्रासन, स्थान श्रौर गमनादि कार्योमं जो श्रमण की प्रयत्न सं रहित चर्या--श्रसावधानता-
पूरणं प्रवृत्ति- होती है उसका नाम छेद है । यद्यपि मूल गाथामे प्रकेत दद शब्दका प्रयोगन करके
पूबोक्त प्रवत्ति को हिसा कहा गयाहै, तोभी उसङी व्याश्या करते हुए भपमृचचन्द्र सूरि ने यह् स्पष्ट
कही है कि भ्रशुद्ध उपयोग का नाम छेद है, भ्रौर चकि ्रनाचारपूणे प्रवृत्तिरूप मृनिका वह् भ्रशुद्ध उप-
योग श्रमणघमं का छेदन करता है--उसका विनाशक है, इसलिए उसे छंद कहना युक्तिसगत है ।
त. सूत्र (६-२२) भौरस. सि. भ्रादि ग्रन्थो के श्रनुस्ार छेद यह् नौ प्रकार के भ्रथवा मूलाचार
(४५-१६५) कें भनुसार दष प्रकारके प्रायदिवत्तके भरन्तगंतरै। स. सि. मे उसके लक्षण का निद्देश
करते हुए कहा गया है कि अपराघ के होने पर साधु की दीक्षा को यथायोग्य एक दिन, पक्ष वं मास
झादि से होन कर देना, इसका नाम छेद प्रायदिचित्त है । त. वा. श्रौर (घबला पु. १३, पृ. ६१) भादि
में प्राय: इसी का भझनुसरण किया गया है । विशेषरूप से घबला मे यह कहा गया है कि दिवस, पक्ष,
मास, ऋतु, श्रयन भौर संवत्सर भावि प्रमाण दीक्षापर्याय को छेदकर भ्रमीष्ट पर्याय से नीचे की भूमि में
स्थापित करना, यह छेद नाम का प्रायदिचित है । यह प्रायश्चितत श्रपराघ करने वाले उस भभिमानी साधु के
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