कल्याण | Kalyan
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
95 MB
कुल पष्ठ :
1239
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परमरंस-पिवक्माखा
( लेखक--उस्वामीजी श्रीमोटेबाबाजी )
[ वषं ११ प्रष्ट १४४७ से आगे
[ मणि १० चृहदारण्यक
अभयदानकी उत्कृष्टता
हे जनक ! कुरुसे्रमें सूर्यंग्रदणका मे कोई
पुरुष सुवर्णीदि पदार्थोस पूर्ण संपूर्ण प्रथिवीको
ब्रह्मवेत्ता घ्राह्मणकों श्रद्धापूरवक दान कर दे. उस
दानसे भी स्थावर-जंगम प्राणियोंमें किसी एक
प्राणीकों भी अभयकी प्राप्ति करानी कहीं अधिक
दान हैं । तात्पर्य यह ट कि स्थावर-जगम
प्राणियोमिंस किसी एक प्राणीकों भी जा
पुरुष अभयदान देता है उस असयदानस भी जब
कोई पुण्य अधिक नहीं £; तो जा पुरूप सर्वकाल)
सर्वद्रदामे स्वप्राणिर्योको वत्भयदान द, ता
उससे अधिक कोई पुण्य नहीं है; इसमें कद्दना ही
क्या हैं । इसलिये जो सन्यासी सवक अभय-
दान देकर आन्मसाशात्कारके लिय यत्त करता
>. वह इस दारीरमें अधवा अन्य दारगमे दैत
दर्शनज्न्य भयका प्रात नहीं दता किन्तु सच-
भयसं रहति चदधत घ्रह्मकों ही प्राप्त होता है ।
इसलिये असयदानस अधिक अन्य दान नहीं है !
अर्दिसाक्री उक्कृषना-ट जनक ¦ जगानुज. अण्डज,
श्वदेज, रद्ध -टननचार प्रकारके जप्य हरीर,
मन. वाणीस दुम्ख न पर्हचाना- सकरा नाम
अहिसा £ | इस अडिसामे ही सत्य दया: तप,
दान इन चार पाइवाला घर्म सबंधा निवास
करता है । है जनक ! हिंसा तीन प्रद्मार्की होती
ट्े-दारीरछात, वाणीकत ओर मनकत । जरायुजादि
चार प्रकारकें जीचोंकें दाररसीरमे शास्त्रादिस प्रहार
करना, सन्व-ओपधि आदेख रोगकी उत्पत्ति
करना, उनकें स्री, धन, अन्नाद्का हरण करना,
जीवक मरणकं अनेक उपायोंका नाम
इत्यादि
चारीरकृत हिंसा है । किसीके किसी दो पकों द्वे प्रभाव से
राजा तथा राजाके भत्योंक समीप कथन करना:
अन्य प्राणियोंकी निन्दा करना र गुणवानेमि
दोप कथन करना इत्यादि चाणीकृत हिंसा हैं ।
अन्यके कीर्ति आदि गुर्णोको सदन न करना,
अन्यके घनादि पदार्थोकी प्राप्ति लिये अनेक
उपाय सोचना; तथा दूसर्रोक सरणका उपाय
करना, इत्यादि मनम दुःख-चिन्तनका नाम
मनन्त टिंसा है ।
हे जनक ! किसी टेवदत्त नामक परुपका
यक्षद नामका झात्रु हैं, उस यज्ञदत्त दाचुकों जो
पुरुप देवदत्त नामक पुरुपकों मारनेकी वृद्धि और
ध्रनादि पदाथ दे. इसका नाम उपायहिंसा टै,
यह उपायहिसा कई प्रकारकी होती है। इस
लोक सथा परलोॉक्मस अपने या अन्य प्राणियांको
दुख दनेवाला मिध्या चचन मी हिंसा ही दै ।
यक्ष-दानादिमें प्रचूत्त हुए पुरुपकों अनेक प्रकारक
कुलकोमि उस श्ुभक्मम निवृत्त करना आर आप
मा ययुमक्मं न करना, इसक्रा नाम नाम्तिकपना
है, यह भी हिसा दै । शासत्रावह्ित सन्भ्या-
गायत्री आदि नित्यनैमित्तिक कर्मोका त्याग
दना और दास्त्रनिपिद्ध परस्त्रीगमनादि पापकम
करना, ये दोनों करनेवालिकों, उसके कुन्दकों और
देशका अनर्भकी प्राप्ति करत हैं, इसलिय ये दोनों
भी हिंसा हैं । जो पुरुप दस भारतखण्डमें
अधिकारी मनुप्यशरीर पाकर निद्रा-तन्द्रादि
तामस वृत्तिम अपनी उम्र व्यर्थ स्व दुत
ह उनको इस लोक और परलॉक्मे दुःकी
प्राप्ति दोती है; इसालिय निद्रा-तन्द्रादि भी
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