पिच्छि कमण्डलु | Pichchi Kamndlu
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
235
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२
तद्गुणलब्धि का यह प्रयत्न श्रसामान्य कार्य है । सिद्धालय की ऊंचाइयों
को हेलया नही द्रा जा सकता । मन, वचन श्रौर् काय के बहुमृखी व्यापार को
ध्येय की एक बिन्दु पर ले भ्राना उतना सरल नहीं जितना जह ध्याच, ध्याता,
ध्येय को लय' पदावली को गा देना । गुणलब्धि के लिए श्राचरण करना होता
है, विचारो मे ग्रनेकान्त सप्तभंगी का श्रौर चारित्र में प्रहिसा का प्रदमसनीय-श्रात्म-
वृत्ति से भ्रनुध्यान, चिन्तन, मननपुर्वक सहजगति से चारित्रप्रवर्तन करना होता
है श्नौर तव कही साधना के पथ पर सिद्धिके दूरगामी चरण दिलाई देते है।
जैसे वासके श्राश्वयसे नट ऊचा चढ़ने मे सफल हो जाता है उसी प्रकार भक्ति
कै मणिसोपान (सीदियो) के सहारे मनुप्यभव उच्नतावस्था प्राप्त करने में
कृतकाये हो जाता है क्योकि स्तुति करते २ उसे जो तन्मयता प्राप्त होती रहती है,
उससे उसे दैहिक विषय-विकारों पर विजय तथा विनृषणा कौ प्रानुषगिक उपलब्धि
होती है जिससे शरुभोपयोग मे वृद्धि ग्रातह । वह इस तन्मयता में गाने लगता है
कि 'हे जिनेख्'! हे तेज पुज के श्रधिपति ' मै तुम्हारी श्रद्धा मे डूवा रहें, तेरा
श्रचेनमात्र याद रहे शेष सभी बाते मै भल जाऊ, मेरे हाथ श्रजलिवद्ध होकर
तुम्हारे समक्ष मेरी श्रकिचन भक्ति का नैवेद्य लिए रहे, कानों मे तुम्हारी पवित्रकथा
मुनायी देती रहै ग्रौर श्रव त्राटकसिद्ध हौकर ग्रनिमेषवृत्ति से तुम्हारे ही दर्शन
का लाभ लेती हुई इन्द्र के सहस्रलोचननिरीक्षण को भी मन्द कर दे । हे देव !
मुझे कोई व्यसन न हो श्रौर यदि व्यसन शब्द का भ्रथे श्रतिप्रसग-म्रतिमेवन'टैतो
मुभे श्मापकी स्तुति करने का व्यसन रहै एव यह मस्तक तुम्हारी गुम्भार श्रद्धा से
निरन्तर नतिपरायगा रहे । पूजा के नारिकेल-सा तुम्हारे चरगामूल में धरा रहे ।
मैं तुम्हारी ही कृपाश्रों के प्रसाद से प्राप्त इस श्रमतजीवन को जीकर तेजस्वी
सूजन और पुण्यवान् रहें । इस प्रकार के उद्गार जब छन्दोमयी वागी पर स्वत
प्रस्फुटित होने लगे तव स्थाणुसमाने शरीरवृक्ष प्र देवीवरदान का श्रमृतत-वसन्त
कुसुमित हृभ्रा जानना चाहिए । इस भक्तिकृसुम से विहूंसते वसन्त को पने मे मन
के जाइय (शिशिरभाव) को दूर करना मात्र पर्याप्त है फिर तो “शक्तिम्तस्य हि
तादूशी' उस परमदयाक्षमामूर्ति परमात्मा की करूंगा के स्रोत नवीन प्राकाणयया
१ “सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यचन चापि ते
हस्तावजलये कथाश्रुतिरत कर्णाोऽक्षि सम्परक्षते ।
सुस्तुत्या व्यसन शिरोनतिपर सेवेहशी येन मे
नेजस्वी रुजनोऽहमेव मृङृती तेनव तेज पते {11 ~ स्तुतिविया, आ्आ° समन्तभद्र
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