विराज बहू | Viraj Bahu

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Viraj Bahu by शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय - Sharatchandra Chattopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विराज वहू नीलाम्बर भी हंसने लगे-“मैं वया बहाना करके उठ जाता ह? विराजे कहा- उ्ै, एक दिन भी नरी । ठेवा वारेप त्तौ तुम्हारे दुश्मन भी नहीं लगा सकगे ! इसके लिए मुझे वितभे दिन उप यास करना पड़ा है, यह तो छोटी धट् जानती है 1... ० है, यह क्या, वस था लिया?“ पंचा फेककर विराज मे दूघ का कटोरा जोर से पकड़कर कहा- “भिरे सिर की कमम हे तुमको, उटो मरत ।,..जल्दी जा प्री, छोटी बह से दो सब्देश तो माँग ला । न, न, गर्दन हिसाने से काम नहीं चनेगा। अभी चुम्हारा पेट नहीं भरा है । मंया री, मैं कहती है कि अगर उठ गए तो मैं खाना नहीं साऊगी । कस रात को एक बजे तक जागकर मैंने सब्देश बनाएं हैं ।”” दौडती हुई हरिमती गई और एक तशतरी में बहुत से सन्देश लाकर नीलाम्बर के सामने रस दिए 1 नीलाम्बर ने हँपते हुए कहा--“अच्छा बताओ, इतने सन्देश कया र्म अकेला घा सक्तां ? तदतरी की ओर देखकर विराज ने तिर प्ुकाकर कहा “वात- चीत करते-करते धीरे-धीरे खाओ, खा सकोगे ।'” नीलाम्बर ने कटा- “तो खाना ही पडेगा |“ विराज ने कहा--''हाँ । अगर मछली खाना छोड़ दोगे तो ये घीजें कुछ अधिक मात्रा में लाती पड़ेंगी 1” तदतरी करीव खीचकर्‌ नीलाम्बर मे बह्ा-“तुम्हारे घुल्म के कारण तो जी चाहता है कि किसी वन में भाग जाऊ +” पूटी रो पड़ी-“दादा, मुझे भी ,..।* विराज ने धमकाते टुए कहा--“'चुप रह जलमु ही ! लाएंगे नहीं सो कंसे जिन्दा रहेंगे । ससुराल जाने पर इस शिकायत छा पठा चत्तेगा 1”




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