तरंगित ह्रदय अथवा विचार तरंगमाला | Tarangit Hriday Athwa Vichar Tarangmala

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Tarangit Hriday Athwa Vichar Tarangmala by पं॰ देवशर्मा जी - P. Devsharma Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द लसस्कार सिचपय नप्रस्कार कर्तेके श्रोर कुद कव्य ही नही र्हा । कक छ तुम्हारे खिवाय इस डुनिशमें शोर कोई लमस्करण्य नहीं है। यह में जान गया हूँ । सेरा सिर संसारमें जहाँ कहीं सुकरता है वहां तुम्हारा पवि प्रकाश पाकर ही शकता है। जहाँ तुम्हारा प्रकाश नहीं है वहाँ यदि कोई बलानकास्ते शी भेरा सिर छुकाना चाहना है--उंडेके जोरसे अुकानः चाहता है, बन्दुकोौ शौर तोपौका भय दिललाकर युकाना चाहता है तब भी नही सकता । मालूम पड़ता है कि मेरा सिर टूट जायगा पर झुकेगा नही । किन्तु कही पर यदि तेरा कुछ भी प्रकाश दीख जाता है तो न जाने किस जादूसे मेरी इसी गदनमें वह लचक प्रकर होती हे कि तुरन्त तेरे प्रकार रूप वर्णों मेरा सिर जा पड़ता है । ऐसा मालूम होता है कि मेरे खिरका यह खामाबिक घर्म है छोर तुम्हारे अकाशें मेरे सरतक के लिये कोई स्वाभाविक चु- स्वक शक्ति है जिस के कारण खिर दिना नमे रह हीनहीं सकता । इख भ्रकारके सतत अजुभवसे मैंने यह जाना है कि तुम्दारे सिवाय खंसाप्में छोर कोई नमस्करणीय नहीं है । (| (| में यह भो जान गया हूँ कि इस विश्वके सबझे सब नम- स्कारोके एक मात्र भाजन मी तुम्हीं दो! खच्वे दिलसे जो कोई भी नमस्कार जिस किीके भी प्रति किया जाता हे दे




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