श्रीरामकृष्ण परमहंस | Shreeramkrishna Paramhans

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Shreeramkrishna Paramhans  by स्वामी श्रीचिदात्मानन्द - Swami Sri Chidatmananda

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५) भोजन करना आरम्भ हुमा कि सारा शोर-शुल आपसे आप बन्द हो जाता हे ऐसे ही आत्माजुभवी महात्मा शब्दज्ञालमें दूथा समय नहीं लोते, उन्हें भगवद्‌-स्मरणके असूतपानमें दी आनन्द मिलता है । नाना मताचलस्वियोंके आपसके भगड़े जन्ञान और अहंकारके कारण ही होते हैं। दूसरे मतोंको सहाजुभूतिके भावसे भलीभाँति समझे बिना भगड़ोंका मिटना असम्भव है। सभी घर्ममाग अपने-अपने स्थानपर सत्य हैं । यह आग्रहं करना कि केवर असुक धमं ही सत्य दै, सत्यका गला धौटनां है । परमात्मासे मिलनेके अनेक मागं है, जो जिसे प्रिय यर खुरुम धतीत हो उसके लिये वदी हितकर है। यदि यह भाच लोगोमिं हृद्‌ हो जाय तो आज दही परस्परकी कठ मिट जाय और जगतमें शान्ति स्थापित हो जाय । परमहंस- देवका संसारके कल्याणके हेतु यह परम हितकरः आविष्कार था कि 'सब धर्म सत्य है / यदह उनका अपना अनुभव था, क्योंकि उन्होंने कई मतोंकी सत्यताकी उन्दीके उपार्योका अवलम्बन करके परीक्षा की थी; जिससे उनको हूढ़ विश्वास हो गया था कि प्रत्येक धर्म सत्यकी नींवपर खड़े हैं। जो जिस मागसे अनन्यचित्त होकर ओर उदारभावसे टढढ़तापूर्वक चढेगा वह सत्य वस्तुकी उपलब्धि अवश्य कर लेगा । दिन्दूको सच्चा दिन्दू बनकर अपने धम॑पर अविचकित रूपसे दरद्‌ रहना चाहिये । सुसठमानके लिये निष्कपरटभाचसे पक्का मुसलमान बने रहना ही श्रेयस्कर है । ऐसे ही ईसाई आदि अन्य मतावलस्वियों- को अपने-अपने घर्मके अनुकूल शुद्ध भावसे धर्म-पाठन करना ही श्रेष्ठ है 1 सर्च-घर्म-समन्वय-प्रचर्तक श्रीरामछृष्ण परमहंखका




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