अयोध्याकाण्ड | Ayodhyakaand

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Ayodhyakaand by महात्मा भगवानदीन - Mahatma Bhagwandin

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९३) की ङकटी से वनती है) 1 चरस = ( चम॑ ) शग खा, यावय्वर भादि | बसन हू चखन ( पती )। रेम-पट रोयें के वख ( एु्ाखा कम्बरु भादि) । पार-पट == रेरमी व्र ( पीतास्वर, सिर्क भंडी जादि ) । चिदहित = फथित, की इई; अनुसार ! विधान = विधि, रकार, रीति । रच्छ = वनामो, सजाओों । विविध = कर प्रकार फे } पितान = ्चदडा, मण्डय 1 भानार्थ---्वर, खगखाला आदि और घहुत्त प्रकार के ( सृती ) यख भौर घहुत जाति के रयं के तथा रेशमी वख, रत्न आदि जे संसार मै राज्याभिषेक के लिये भनेक साँगलिक वस्तुएं हैं ( चशिष्टनी ने ) बतलायीं, वेद के अजुसार सच री तियाँ कहीं, सर नगर में कई प्रकार के मण्डय सजाने के किए फटा । पनस रसाल पुंगफल केस । रोपडु चीशिल्द पुर चहुँ फेरा ॥ त्वह मंजु मनि बोकर चारू 1 फट पनावन पेगि वजार ॥ पूजड गनपति, यख, पुरलदेवा । खव बिधि कस्टु भूमिर सेवा ॥ शव्दा्थ--पनस = फटदरू 1 रसा = श्राम ! कगफर = सुपारी । केरा = केला । रोपहु--( सं° श्रारोप्ण ) रूगा्यो । चीयिन्द गयो मे 1 प्हुंफेरा चारो शोर । चोकई = चौक ( पूजा की सामी रखने श्रादि के' किये या दैवताश्रों को श्चावाहन रते ॐ रिय पसाव, धवीर, गुराङ श्रादि से जो चोंकोण, त्रिकोण श्रादि चित्र रचनाएँ सज्गरु कार्यों में की जाती हैं उन्हें चीक कहते हैं श्रौर उस कार्य को “चौक पुरना” षोरते दैः । ) चारू सुन्द्र ! चजारू=~( फा० ) हाट, यान्नार । शुमिसुर = चाद्छण । भावा्थ--( वरशिष्ठ जी ने और कहां कि » कर्दल, श्राम, सुपारी घोर ' केले के घ्रूक्ष नगर सें चारों ध्रोर सछियों में रूयाओओ । उत्तम मसियों से सुन्दर चोक एरो श्रीर ( नगर के छोगों से ) शीघ्रह्दी वाज़ार बचाने (सजाने) के लिये कह दो । गणेश जी, गुरु और कुरदैव'( शंकरं ) छी पूजा करो शौर पादयो की सच प्रकार से सेवा करो । द्वो०--'ध्वज पताक तोरन, कलस, सजझ तुररग रथ 'नाग.। सिर ध्ररिसुनिवर यचन सवुः निज निज काजदि लाग॥9॥




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