जीवनलीला | Jeevanleela

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Jeevanleela by काका साहब कालेलकर - Kaka Sahab Kalelkar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ देते हैं। जिस ससारवा प्रथम यात्री है नदी। जिसीलिजें पुराने यात्री लोगोने नददीके अदुगम, नदीके सगम और नदीके मुखको अत्यत पतित्र स्थान माना है। जीवनवे प्रतीवके समान नदी कहासे आती है और वहां तक जाती है? दान्यमें से आदी है और अनतमें समा जाती है । शून्य यानी अत्यल्प, सूद्म बिन्तु प्रबल, और अनतके मानी हैं विशाल और शात । शून्य भौर अनत, दोनो अवसे गृढ ह दोनो अमररह। दोनो भेकी र। शुल्यमे शे अनत -- यह सनातन रीता है। बौरात्या या देवकीके प्रेमे शमा जानेके लिञ जिस प्रकार पदब्रह्यने वाटरूप धारण विया, भुसी प्रचार कारुण्यसे प्रेरित होकर अनत रवय शून्यरूप धारण करके हमारे सामने खडा रहता है। जैसे जैसे हमारी आकलन-दक्ति बढती है, बसे वैसे शून्यवा विकास होता जाता है और अपना ही विकास-वेग सहन न होनसे बह मर्यादाका अुल्लघन करके थां भूते तोडकर अनत मन जाता है-- विदुका सिधु बन जाता है। मानव-जीवनकी भी यही दशा दै । व्यवितसे बुदुव, बुटुबरे जाति, जातिसे राष्ट्र, राष्ट्रे मानव्य ओर मानव्यत्े भमा विद्व -- भिस प्रतार हदयकौ भावनाओका विकास होता जाता है। स्व-भापाकै द्वारा हम प्रथम स्वजन।का हृदय समश ठेते है ओर अतमें सारे विद्वदा आकलन कर लेते है । गावसे प्रान्त, प्रान्तसे देश ओर देशसे विश्व, चिस प्रार हम “स्वका विकारा करते करते ' सर्व ' में समा जाते है । नदीका और जीवनका श्रम समान ही है। नदी स्वधर्म-निष्ट रहती है और अपनी कूल-मर्यादाकी रक्षा वरती है, जिसीलिओे प्रगति बरती है। और अतमें नामरुपकों त्यागयर समुद्रमें अस्त हो जानी है। अस्त होने पर भी वह स्यगित या नष्ट नटी हती, चलती ही रहती रै । यह है नदीवा श्रम । जीवनका थर जीवन्मुक्ति भी यही धरम दै। नया भिर परसे हम जीवनदायी शिक्षाके श्रमके बारेमें बोध लेंगे? १९२२




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