खिलखिलाता गुलमोहर | Khilkhilata Gulmohar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बदन १०० मैं कह रहा था, प्रापने तीनवजे कीधूुपदेखीरै? साधारण गली-कूचों की नहीं । किसी हरी-भरी वादी की । ते जाने क्यों टूंढ़ती हुई, तीन बज की घूप । बहुत प्यारी लगती है न घूप को उदास श्रौर ढूँढुती ग्राँखिं ? चहू वादी में कया ददती हैं ? शायद श्रपना मध्याह्न रूप या रूप मध्याह्न ! घूप के उजले चेहरे पर बादी की निरुत्तर छाया परेशानी में वेभिभक मुख पर लटक श्राई लट-सी लगती है । शायद हर परेशान खुब- मूरती की यही तस्वीर हो सकती है । तीन वजे की धूप श्रभी-अभी स्लीपर से उतरी है । वह ॒प्लेटफामं पर टहल रही है। “टहलना' कहना गलत होगा । बह किसी को ढूंढ रही ढने दो ।” इतना कह कर वर्भाजी झ्रखवार पढ़ने लगे थे श्रीर मैं लोगों की भीड को । एकाएक मेरी दृष्टि प्लेटफॉर्म पर व्यग्रता से चहलकदमी करती उस पर पड़ गई । विलकुल वर्माजी द्वारा प्रभी-प्रभी वयान किए गए हुलियेवाली तान बज की धूप । बस देखते ही रहिये नजर न भरना चाहती है न ठ्हरना । मगर ट्रेन को वक्‍त से प्लेटफार्म छोड़ना होता है । टन सरकतसे लगी श्रीर जह्दी ही बहू सब यु छूट गया । डिब्ये में वत्तियाँ जल उठों पर मेरा मन वुभने लगा । मुभे बुभता हुम्रा देख कर वर्माजी ने फिर कुरेदा-- 'कहिये, मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा था ?”' हीं ऽ ५ कु ७७७३१००५ मगर ५००५००५१. ^ 41 “यात दरग्रसलपेसीदै कि द्रो देख कर मुभे श्रषने एकमित्रकी याद हो भाई थी ।”--कह कर वर्माजी फिर्‌ चपहो मषु । वमाना ग मेरा परिचय श्रमो दो-तीन दिन पुराना ही है । होटस से मर पड़ोस में ठदरे थे । पूरा नाम चताते थे पी. डो. वर्मा; प्रिय दर्शन चमा । ठ्न दोन्तीन दिनों में जितना उन्हें जान पाया हूं यही कि बड़ी रसिक तवीयत्त के म्रादमी हैं । बातचीत के लद्ठज में साहित्यिकता वेग श्राभास पदुला हो भट में हो गया था. रसलिए पटरी बैठ गई । बात्तचीत करने का ढंग हो इनका ऐसा है । यहीं भावनता में बहुत अधिक चंद जाएंगे ग्ीर वॉलत हो जाए ये प्रर ब्रीं णक-एगः शायद पर घ्म तरह कक कर सोनसे रहेंगे बस घानयीत के घाम उनः गए हा 3 पुस श्चसरा पर मम उन घागों ने सुलभान से सदायता करनी पड़ती है सन नजे की पुष 19




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