लोक वित्त पब्लिक फाइनेंस | Lok Vitt Public Finance

Lok Vitt  Public Finance by रमणलाल अग्रवाल - Ramanlal Agarwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लेाकवित्त की रूपरग्वा कोशदंड के द्वारा राजा स्वपक्ष तथ। परपक्ष को वहा में करता हु । यह बात सम्राट चंद्रगप्त मौयें के महामंत्री चाणक्य ने आज से लगभग सवा दो हजार वर्ष पूर्व कही थी । राजकोष और राजदंड के सम्मिश्रण से यह दाब्द उत्पन्न हुआ । शारीरिक दंड के अतिरिक्त कर भार अथवा जुर्माना भी दंडका स्वरूप है इस प्रकार राजवित्त से कोशदंड बहुत अधिक संबंध रखता है । लोक व्यवस्था का जिकास किसी भी देश की सरकार चाहे वह जिस गठन के आधार पर बनी हो दो कार्य तो अब तक करती ही रही है पहला शासन और दूसरी व्यवस्था । शासन का अर्थ है आतंक । मानव के सामहिक विकास की मूलस्थिति में तो साबंजनिक व्यव- स्था का रूप था एक कुट्म्ब या समूह एक जगह जंगल या खोह में रहता सभी भिरू- कर सबकी व्यवस्था करते भोजन सामग्री प्राप्त करने और बांटने की रहन सहन की खतरे से बचने की इत्यादि । समूह की वृद्धि के साथ-साथ यह व्यवस्था बहुआश्रथी रह कर एक मुखिया स्त्री था पुरुष के हाथों में आई और राजा का उदय होते होते उसमें व्यबस्था के साथ आतंक की भावना जुड़ गई । राजा था ही एक गुट का सर दार जो दूसरे जनसमूह को डरा कर उसकी कमाई पर कब्जा किये. रखने की व्यव- स्था करता था । इस लिये शासन और व्यवस्था ये दो काय॑ राजा के थे । राजा धीरे एक संस्था ही बन गया । प्राचीनकाल तथा अभी कुछ पहल तक आधुनिक काल में भी राजा नामक संस्था रही हैं और कुछ देशों में अब भी है । राजा को दसंख्या घटती बढती रही है । मक्कार और बदमाश लोग जो ठगकर ही सफ्त का माल उड़ाना चाहते थे राजा के अनेक रूपों सें साथी बने । शासन को इसलिये अधिक से अधिक दाक्तिशाली बनाने का प्रयत्त किया गया । विदेशी आक्रमण से बचाने का अर्थ केवल इतना रहा कि तात्कालिक दासक वर्म के लटाधिकार और लट खसोट को . कोई बाहरी उन्हीं की तरह का महान बटमार न ले बठे । जनता की भलाई के लिये शासन व्यवस्था में शासकवर्ग की तबदीली से कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता था ।




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