संस्कृत समीक्षा सिध्दान्त और प्रयोग | Sanskrit Sameeksha Sidhanta Aur Prayog
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
369
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वैदिक साहित्य में काव्यशास्त्र के सोत [ €
-कान्यसौन्दय-द्ोतक स्थल
अव अन्त में वैदिक साहित्य से कुछ ऐसे स्थल लिये जा रहे हैं जिनमें काव्य-
सौन्दर्य लक्षित होता है । यों चाहें तो हम इन्हें शब्दशक्ति, रस, अलकार आदि के
भेदों के उदाहरण-स्वरूप स्वीकार कर सकते हैं । इनमें लक्षणा अथवा व्यञ्जनाकी
चतति मिलेगी । श्वंगार, करुण आदि रसों की चमत्कृति उपलब्ध होगी, तथा उपमा,
रूपक, उल्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति आदि बहुविध अलंकारों की सुन्दरता तो अनेक
स्थलों मे देखने को मिलेगी । किन्तु यहाँ इन्हें इस उद्देश्य से' प्रस्तुत किया जा रहा है
कि हम इनमे काव्य-सौन्दर्यं देख सके, इनमे काव्यशास्त्रीय विभिन्न तत्त्वो को ढूंढने
सी दृष्टि से ये स्थल प्रस्तुत नहीं किये जा रहे ।
अब कुछ मस्त्र ऋग्वेद से लीजिए-- #
कन्येव तन्वा शाशदाना एषि देवि देवसियक्षमाणम् ।
संस्मयमाना युवतिः पुरस्तादाविरवक्षांसि कृणुषे विभाती ) ऋग् ° १.१२३.१०
तरुणी उषा का मन अपने वल्लभ सूर्य को देखकर नाच उठा । वह स्मित-
चदना अपने प्रिय को उसका अभीष्ट [सुख] प्रदान करने के लिए उसके सम्मुख
खड़ी हो गयी ओर उसने अपने वक्षःस्थल को खोल दिया ।
जायेव पत्य उश्चती सुवासा उषा हस्र व निरिणीते मप्सः 1 ऋग्० १. १२४. ७
उषा लोगों को अपना रूप उस प्रकार दिखा देती है, जिस प्रकार कामयुव्त
नारी ऋतुकाल मे सुन्दर वस्त्र धारण कर पति को अपना रूप दिखाती है, तथा उषा
अपने भीतर छिपे हुए सब द्रव्यों के रूपों को उस प्रकार दिखा देती है, जिस प्रकार
हूँसती हुई अथवा हास्य स्वभाव वाली कोई नारी हँसकर अपने दाँतों को दिखाती है ।
ता इन्नवेव समना समानी रमीतवर्णा उपसइचरन्ति ।
गहन्तीरभ्वमसितं सशदि्भिः शुक्रास्तनूभिः शुचयो रुचानाः । ऋग् ° ४.५१.६
ये उपाकाल- जो कि अवमभी वेसेकेवसेह, वसे ही अपनी चमकती हुई
आङृतियों से युक्त है, वैसे ही जाज्वल्यमान हैँ तथा वसे ही इनसे किरणे फूट रही'
हैं, इनके वर्ण में कोई अन्तर नहीं आया--[आगे की बोर] वढ़ रहे ह तथा [वदते
समय | काले राक्षस [के समान अन्धकार] को ढपते चले जा रहे हैं ।
वय: सुवर्णा उपसेदुरिन्द्र प्रियमेघा च्षयों नाघमाना: ।
अपध्वान्तमू्णहि पुर्धि चक्षुमुंमुर्ध्यस्मान्निघयेव वद्धान् ॥ कऋगृू० १०. ७३. ११
उछ स्थल प्रस्तुत कर
: कर सकते है ।
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