पर आँखें नहीं भरी | Par Ankhe Nahi Bhari

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Par Ankhe Nahi Bhari by शिवमंगल सिंह - Shaivmangal Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पर आँखें नहीं मरी - पत्तिगा विचारा जला जा रहा है कि दीपक का दामन छला जा रहा है कि जलते हें यों ही सनेही बिचारे खुदी को बिसारे । हिलीं यों लताएँ कि. ढाढ़स बंँधाएँ कि श्रसमय सुमन-दल चुना जा रहा है नया. ताना-बाना बुना जा रहा हैं मधुप गुनगुनाते रहे मन को मारे कली के सहारे । विमन मन मनाएँ कि कविता बनाएँ कि अंबर चुनौती मुभ्े दे रहा है कि सागर मनौती लिये ले रहा है, तनिक देर में तू कहाँ, में कहाँ रे ? रहेगा जहाँ रे ! ग्यारह




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