राजप्रशस्ति : महाकाव्य | Rajprasastia Mahakavyam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८] राजप्रशस्तिः महाकाव्यम्‌ --वखनाभ--महारथी-च्रतिरथी-ग्रचलसेन--कनकसेन--मटासेन-ग्रंग -- 1 विजयसेन--श्रजयसेन -- ग्रभंगसेन-- मदसेन-- सिंहस्थ 1 ये राजा श्रयीध्या-वासी थे । सिंहरथ के विजय नामक पुत्र हुम्रा । उसने दक्षिण देश के राजाओं पर विजय प्राप्त की और अयोध्या छोड़कर वह दक्षिण में रहने लगा । वहाँ उसे श्राकाशवाणी सुनाई दी कि वह “राजा ॥ उपाधि छोड़कर श्रपने वश मे श्रादित्य' उपाधि धारण करे। मनु से लेकर विजय तक जो राजा हुए. उनकी सख्या १३४ है । तीसरा सगे--इसकी श्लोक-सख्या ३६ है । प्रथम श्लोक में हरि की वन्दना है । उसके पश्चात्‌ विजय के वद कै राजाश्रो की वशावली दी गई हू जो इस प्रकार हैः- -- पद्मादित्य--श्िवादित्य--हरदत्त-- --सुजसादित्य- -सुमुखादिन्य- सोमदत्त - शिनादित्य---कंणवादित्य--नागादित्य-- -भौगादित्य---देवादिव्य- श्राशादित्य--कालभोजादित्य -- ग्रहादित्य-- ये १४ श्रादित्य' उपाधिधारी राजा हृए । ग्रहादित्य के समस्त पुत्र गहिलौत' कहलाये । अ्रह्‌। दित्य का ज्यप्ठ पुत्र चाप्पथा 1 यह वाप्प वही था, जिसे क्डकर पावती ने श्रध, बहाये थे । शिव का चंड नामक गण मुनि हारीत राशिहुम्रा। वाप्प हारीत का शिष्य वना श्र उसकी श्रान्ना से नागह्वदपुर में रहकर उसने एकलिग शिव का प्रचन किया । * प्रसन्न होकर शिव ने उसे वरदान व्यि कि वहु वंशपरंपरा तक चित्रकूट पर शासन करे प्रौर उसका वंश वरावर चलता रह । वरदान पाकर वाप्प १९१ वपे १ वाप्पसे श्रभिप्राययहांवापा रावलसेहै। २ नागहुदपुरा = नागदा \ यह्‌ नगर उदयपुर से १४ मील दूर उतर दिशा में है ।




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