जय वासुदेव | Jay Vaasudeva
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
43 MB
कुल पष्ठ :
195
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)` श्रौर साथ ही. रत्नाम्बर ने इन्दु को पुकारा--झरी इन्दु, इन्दु
रीझो! ।
इन्दु कोडइस गोष्टी का पता दही नही, यह बात नहीं, इस गोष्टी
मे होना वह नहीं चाहेगी, यह बात नहीं । परन्तु उसके भीतर-भीतर
जो मर आया, जिसने श्राज एकत्र जैसे अभाव को पूर्ण कर लिया है,
उसे जो रिक्त थी, भरा-भरा कर दिया है, वह स्पष्ट, ज्ञात भी अज्ञात
. कुछ ऐसा ही भाव लेकर वह एकत मेन बैठी है। आश्रम के
. पीछे पास के श्राम पर कोयल कूकी |
हू, कुहू, कुहू । ~ |
इन्दु ने सोचा--श्राद, केसा है वह तरुण. यह तो न दिवाकर `
जेसा है, न ही है यह रत्नाम्बर जैसा ।
तब कैसा !?--उसके मन ने पूछा । उत्तर डाल पर बैठी अपनी
प्रतिष्वनिसे ही होड करती हुदै कोयल ने दिया |
क्रूः कू कहू । =
` यही किं यह तरुण कुहू कुद्र कहू जैसा दै ।
एकदम कुहक पेली, श्राश्वयं ।
उसने सोचना जारी रखा ।
उसे वह दिन याद है, धुंधला, घला, धुंधला ।
चार-पांच की थी वह, कुछ यों ही बोलचाल लेती थी । कोई
स्नेहमयी श्रंचल से ढकी. रहस्यमयी, आाँखों से श्रजनवी, कयणामयी . ..
मात- मूर्ति उसके सामने श्रायी । उसे ही तो. कहते है माँ) उसका
.. स्नेह उसने कहाँ जाना ! वह तो पिता की स्नेहशछाया मे पली, पल कर `
बही, बद् कर किशोरी हुई शरौर श्रव कुमारपन श्रौर यौवन की दहलीज `
पर खड़ी ।
यहं पिता श्राज रह गये, नहीं आये, क्यों नहीं आये | सबके `
चाहे कुछ हों, गुरु हों, श्राचाय॑ हों, नेता हों, पूज्य हों, उसके तो वे...
न
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