जय वासुदेव | Jay Vaasudeva

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Jay Vaasudeva by रामरतन भटनागर - Ramratan Bhatnagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` श्रौर साथ ही. रत्नाम्बर ने इन्दु को पुकारा--झरी इन्दु, इन्दु रीझो! । इन्दु कोडइस गोष्टी का पता दही नही, यह बात नहीं, इस गोष्टी मे होना वह नहीं चाहेगी, यह बात नहीं । परन्तु उसके भीतर-भीतर जो मर आया, जिसने श्राज एकत्र जैसे अभाव को पूर्ण कर लिया है, उसे जो रिक्त थी, भरा-भरा कर दिया है, वह स्पष्ट, ज्ञात भी अज्ञात . कुछ ऐसा ही भाव लेकर वह एकत मेन बैठी है। आश्रम के . पीछे पास के श्राम पर कोयल कूकी | हू, कुहू, कुहू । ~ | इन्दु ने सोचा--श्राद, केसा है वह तरुण. यह तो न दिवाकर ` जेसा है, न ही है यह रत्नाम्बर जैसा । तब कैसा !?--उसके मन ने पूछा । उत्तर डाल पर बैठी अपनी प्रतिष्वनिसे ही होड करती हुदै कोयल ने दिया | क्रूः कू कहू । = ` यही किं यह तरुण कुहू कुद्र कहू जैसा दै । एकदम कुहक पेली, श्राश्वयं । उसने सोचना जारी रखा । उसे वह दिन याद है, धुंधला, घला, धुंधला । चार-पांच की थी वह, कुछ यों ही बोलचाल लेती थी । कोई स्नेहमयी श्रंचल से ढकी. रहस्यमयी, आाँखों से श्रजनवी, कयणामयी . .. मात- मूर्ति उसके सामने श्रायी । उसे ही तो. कहते है माँ) उसका .. स्नेह उसने कहाँ जाना ! वह तो पिता की स्नेहशछाया मे पली, पल कर ` बही, बद्‌ कर किशोरी हुई शरौर श्रव कुमारपन श्रौर यौवन की दहलीज ` पर खड़ी । यहं पिता श्राज रह गये, नहीं आये, क्यों नहीं आये | सबके ` चाहे कुछ हों, गुरु हों, श्राचाय॑ हों, नेता हों, पूज्य हों, उसके तो वे... न




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