गुरु प्रताप सूरज | Guru Pratap Sooraj
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
132 MB
कुल पष्ठ :
268
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ की गुरु प्रताप सुरज
धीरे-धीरे यह उत्साह मंद पड़ने लगा । मुगल दरबार का विलासपूर्ण वातावरण भक्ति की
स्वच्छधाराको भी दूषित करने लगा। कष्ण-भक्ति की रसमय लीलाश्रों ने विहारलीला
तया छदमलीला का श्यृद्धारिक रूप धारण कर लिया। हिन्दी-भाषी प्रदेश के विलास-ग्रस्त
हिन्दु राजदरवबारो से मी इस प्रवृत्ति को प्रश्रय मिला। मंदिर वैभव ग्रौर ऐश्वर्य के केन्द्र बन
गये श्रौर नतंकियों एवं वेश्याश्रों की विभिन्न कामोत्तेजक भाव-भंगिमाओ्ों से युक्त नृत्यों की
भकार में भक्ति की सात्विकता लुप्त हो गई । राम की मर्यादित भक्ति भी रसिकता श्र
विहारलीला का रूप धारण करने लगी । संतमत में गुरू-गहियाँ स्थापित हो गई । जिन
बाह्याचारों के विरोध में संतमत खड़ा हुमा था, बसे ही बाह्य चिह्न तथा मिथ्या एवं पाखण्ड-
पुरां ्राचरण उनकी विशिष्टता रह गए । उधर श्रौरंगज़ेब का धार्मिक जिहाद पुरे जोरों पर
था । उसने फिर से मंदिरों को गिरवाना तथा मूर्तियों का तुड़वाना झुरू कर दिया था ।
मथुरा, वृन्दावन, पुष्कर, काशी जेँसे ध्म-स्थानों पर उसने हिन्दू मंदिरों को तुड़वा कर
मसजिदों का निर्माण किया । जज़िया फिर से लगा दिया । दस समय इस क्षेत्र में हिन्दु
के सांस्कृतिक आ्रा्दोलन का नेतृत्व करने वाला कोई नहीं था । परन्तु पंजाब में भ्रभी भी
सिक्खों के दशम गुर' इस प्रान्दोलन का संचालन कर रहै ये । श्रन्य घंतो, भक्तों एवं धर्म
उन्नायकों से उनमें एक श्रन्तर भी था । क्योंकि उन्होंने केवल धर्म-प्रचार द्वारा सांस्कृतिक
प्रान्दोलन को हढ़ ही नहीं किया वरनु यवन श्राततायियों के विरुद्ध खड्ध को भी धारण किया ।
हिन्दू राष्ट्र की रक्षाथ॑ जो कार्य शिवाजी एवं छत्रसाल कर रहे थे, उस दिशा में भी गुरु
गोविन्दर्सिह ने महत्त्वपूर्ण काय॑ किया श्रौर साथ-साथ सांस्कृतिक पुनरुत्थान का प्रयत्न भी
करते रहे । पंजाब के लब्धप्रतिष्ठ इतिहासकार श्री कृपालसिंह नारंग के मता नुसार, “जिस
समय खालसा कौ स्यापना हूर्ई, कोई ८०,००० सिक्ख प्रानन्दपुर में एकत्रित हुए थे ।'+ इससे
उन लोगों की उदीप धम-भावना एवं साहस का श्रनुमान लगाया जा सकता है । गुरु
गोविन्दसिह् के नेतृत्व में सोया पंजाब एक बार फिर जाग उठा श्रौर भ्रपनी संस्कृति की रक्षार्थ
वे कटिवद्ध होकर खड़े हो गये । गुर गोविन्दसिह तथा श्रन्य सिक्ख गुरुप्रा के इम सास्करत्तिक
आन्दोलन ने पंजाब के जन-साधारणा में एक प्राणवान् चेतना, गक्ति श्रौर साहस का संचार
किया । इस युग कौ वीर-भावना, सांस्कृतिक चेतना एवं रा ट्रीय-भावना की स्पष्ट ्रभिव्यक्ति
दशम प्रय तथा शुरु शोभा रादि ग्रंथों में हुई है । सिक्ख-गुरुओं के बाद भी यह सांस्कृतिक
आन्दोलन तीव्र गति से आ्रागे बढ़ता गया । सिक्खमत की प्राण॒वत्ता एव जीवन्त शक्ति दिन
प्रतिदिन बढ़ती ही गई । यद्यपि यहाँ भी श्रनेक सम्प्रदायों ने जन्म लिया, जिनमें से प्रमुख
थे : उदासी, सेवापंथी, सहजधारी, निर्मले श्रादि । परन्तु इन सम्प्रदायों के अ्रनूयायी सिक्ख
साधकों ने भी उस श्रान्दोलन को क्षीणा नहीं पड़ने दिया, वरन उसे संशक्त श्रौर दृढ़ ही
किया; जिसके प्रभावस्वरूप यहाँ ऐसा साहित्य प्रद्र परिमाण में लिखा गया, जिसमे उस
युग के राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संघर्ष का चित्रण हुआ है और उस संघर्ष में से उभरती ह
हिन्दू-रक्ति की वीर-भावना, तेजस्विता, स्वाभिमान, राष्ट्रप्रेम एवं सांस्कृतिक-चेतना की भी
दम सर सन नल न.
१. सना ९ 1८ 7/4 ~ 1.8.928, ए. 154
तकन
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