नागरीप्रचारिणी पत्रिका | Nagripracharini Patrika

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Nagripracharini Patrika by गौरीशंकर हीराचंद ओझा - Gaurishankar Heerachand Ojha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुरानी हिदी । ११ महोदय की केंद्रता को ध्यान में रखकर उसका बताया हुआ राजा के कविसमाज का निवेश बड़ा चमत्कार दिखाता है । वह कहता है कि राजा कविसमाज कें मध्य में बैठे, उत्तर को संस्कृत कं कवि ( कश्मीर, पांचाल ), पूर्व का प्राकृत ( मागधी की भूमि सगध ), पश्चिम को श्रपभ्रश ( दक्षिणी पंजाब और मस्दश ) श्ार दक्षिण को भूतभाषा ( उज्जैन, मालवा आ्रादि ) के कवि बैठे । मानों राजा का कविसमाज भौगोलिक भाषानिवेश का मानचित्र हुआ | यों कुरुक्षेत्र से प्रयाग तक श्रतवेंद, पांचाल श्रौर शूरसेन, रौर इधर मरु, श्रवतो, पारियात्र ओर दशपुर--शौरसेनी श्रौर भूतभाषा कं स्थान थे । पर्श । बांध से बचे हुए पानी की धारा सिलकर अब नदी का रूप धारण कर रही थीं ! उनमें देशी का धार भी आकर मिलती गहं । देशी न्नर कृद नही, बोध से बचा हुआ पानी है, या वह जा नदी मार्ग पर चला झाया, बांधा न गया । उसे भी कभी कभी छान कर नहर में ले लिया जाता था। बांध का जल भी रिसता रिसिता इधर मिलता आ रहा था । पानी बढ़ने से नदी की गति वेग से निन्नाभिमुखो हुई, उसका “अपभ्रश” (नीचे का बिखरना) होने लगा । अब सूत से नपे किनार श्रार नियत गहराई नदी रही । राजशेखर ने संसृत वायी का सुनने याः , प्राकृत का स्वभावमधुर, श्रपथ्रश को सुभन्य श्रौर भूतभाषा को सरस कहा हे । इन विशपणो की साभिप्रायता विचारने याग्य है । वह यह भी कहता है कि काई बात एक भाषा में कहने से अ्रच्छी लगती है, कोड दृमरीमें, कोदर॑दा तीन में । उसने काव्यपुरुष का शरीर शब्द श्रौर अर्थ का बनाया है जिसमें सस्कृत का मुख, प्राकृत का बाहु, झपभ्न श को जघन- की (१) कास्यमी मांसा, र ९४-९. की ण (र) बाटरामायण । (३) काम्यमीमासा, ए. ४८ ।




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