पराया | Paraya

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Paraya by रागेय राघव - Ragey Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पराया / 17' ही अपनी वास्तविकता का ध्यान हो आया । बोला, “नहीं, मैं चला जाऊंगा 1“ , “नहीं, चलो, मैं तुम्हें छोड़ आऊं ।” ममता ने आग्रह से कहा भौर उसे पढ़ने की चेष्टा करने लगी । “नहीं ।” रमेश ने फिर उसी उदास स्वर में कहा, “तुम्हें चलने की कया ज़रूरत है? मुझे क्या रास्ता नहीं मालूम ?” “क्यों ? मेरे चलने पर तुम्हें कुछ आपत्ति है ?” ममता ने कहा । अब उसके स्वर में स्नेह का गीलापन था । रमेश चुप हो गया । उसने देखा--ममता के नेत्रों में एक चमक थी ॥ वह समझ नहीं सका कि इसका अर्थ क्या था ? ः कोई पथ नहीं था । ममता के सामने वह कुछ कहने का साहस करके भी स्पष्टतया कहं नहीं पा रहा था; क्योंकि ममता ने उसका हाथ पकड़ लिया । . वह्‌ उसको हिचकिचाहट पर कोर ध्यान नही दे रही थी । वह्‌ उसे पहुंचाने मे अपने स्नेह का गौरव दिखा रही थी । रमेश परेशान-सा दिखाई: दिया । वह्‌ लाचार हौ गया । ममता ने उसे गाड़ी में बिठाकर गाड़ी स्टार्ट कर दी । बादल आकाश में गरजता हुआ उठता चला जा रहा था ` ओर उसकी काली घनी हुमस हवा पर कांप रही थी । मोटर अहाते के बाहर निकल गई । पानी की वृदे अव तेज हो गई थीं मौर सामने के शीशे पर बार-बार वृदे इकट्टी हो जाती थीं भौर आप ही-साफ हो जाती थीं । रमेश के हृदय में भी ऐसी ही दुविधा थी, जो बार-बार फिरती, बार-बार मिट जाती । ममता प्रसन्न-सी दिखाई दे रही थी। रमेश अपनी ही चिन्ता में आकुल चुप बैठा रहा । पानी का वेग कम होने लगा और वे भारी बूंदें अब झीनी हो गईं । पानी की खड़ी झड़ी की हवा की हिलाई पानी की धारा, तिरछी होकर काटना छोड़ चुकी 'थी। कार बढ़ती ही जा रही थी। रमेश के हृदय में एक अजीव विचार:




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