आश्रम की बहनों को बापु के पत्र १ | Aashram Ki Bahno Ko Bapu Ke Patra-i

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Aashram Ki Bahno Ko Bapu Ke Patra-i by आचार्य काका कालेलकर - Aachary Kaka Kalelkarरामनारायण चौधरी - Ramnarayan Chaudhry

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

No Information available about काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

Add Infomation AboutKaka Kalelkar

रामनारायण चौधरी - Ramnarayan Chaudhry

No Information available about रामनारायण चौधरी - Ramnarayan Chaudhry

Add Infomation AboutRamnarayan Chaudhry

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
बात नहीं । जिसके लिखें जोड़, बाकी, गुणाकार और भागाकार तकका गणित आना चाहिये । अुसके बाद आती है अुद्योगमंदिरकी शिक्षा । जिस शिक्षामें बहुत-सी बातें आ जाती हें । हमें धीरे-धीरे किसान, जुलाहे, भंगी और ग्वाले बनना है । पाखाने साफ करनेकी साधना भी राष्ट्रीय शिक्षाका महत्त्वपुर्ण अंग है। हमारे लिखें और बच्चोंके लिजे जब तक दूधकी जरूरत रहेगी, तब तक गोशालाकी चिन्ता भी रखनी ही पड़ेगी । भिस प्रकार अन्होंने शिक्षाके आवश्यक अंग स्त्रियोंके सामने रखे हे । मगर बापूजीका खास आग्रह यह है कि सच्ची शिक्षा -- भुक्तम तारीम--हृदयकी ही है । जिसके किं पहली बात निभेयताकी है । जन्म-मृत्युका हषं-रोक छोड देना चाहिये । अगर जीना अच्छा रूगता है, तो मूत्युके बाद जन्म आयेगा ही । ओौर जन्म नहीं चाहो, तौ जिस लोकमें ही मोक्षकी साधना की जा सकती है । जिसलिजे दोनों तरहसे मृत्युका डर निकाल ही देना चाहिये । पुरुषके बिना हम असहाय हैं, अनाथ हें, यह खयाल सबसे पहले निकाल देना चाहियें। जिसलिओे गहने और श्पंगार दोनों छोड़ देने चाहिये । सच्चा सौन्दर्य हृदयमें है, अुसीका हमें विकास करना चाहिये । रूप बनाना और गहने पहनना सब' विकार बढ़ानेके लिअे है । विकारी न होनेका नाम ही ब्रह्मचयं है । वह्‌ सध जाय तो भिसी जन्ममें मुक्ति है | विक्रार मिट जाय, तो रोग. भी सिट जाय । हमें जो जवानी मिली है, वह विकारोंकों पोषण देनेके लिमे नहीं, बल्कि भुन्हें जीतनेके लिखे है। कला १३




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now